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श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
इन सब अनुमानों में कर्ता अधिष्ठाता आदि शब्द से जीव ही लिया जा सकता है । शङ्का - मूर्त घटादि के कर्ता कुम्हार वगैरह जैसे मूर्त हैं उसी प्रकार मूर्त देह आदि का कर्ता भी कोई मूर्त ही सिद्ध किया जा सकता है, अमूर्त नहीं | इसलिए विरुद्ध दोष आता है ।
समाधान - संसारी जीव ही देह आदि का कर्ता है और वह कथञ्चित् मूर्त भी है । इसलिए किसी प्रकार का दोष नहीं आता ।
जीव विद्यमान है, क्योंकि उसके विषय में संशय होता है । जिस वस्तु के विषय में संशय होता है वह कहीं न कहीं अवश्य विद्यमान है । जैसे स्थाणु और पुरुष के संशयात्मक ज्ञान में स्थाणु और पुरुष दोनों भिन्न भिन्न रूप से विद्यमान हैं । आत्मा और शरीर के विषय में सन्देह होता है इसलिए दोनों का स्वतंत्र अस्तित्व है ।
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शङ्का - 'विद्यमान वस्तु में ही सन्देह होता है' यह मानने से आकाशकुशुम को भी विद्यमान मानना पड़ेगा ।
समाधान- आकाश और कुसुम दोनों पदार्थ स्वतन्त्र रूप से विद्यमान हैं इसलिए उनके विषय में सन्देह हो सकता है। जिस वस्तु का सन्देह जहाँ हो वहीं उसका होना संशय से सिद्ध नहीं किया जाता किन्तु कहीं न कहीं उस वस्तु की सत्ता अवश्य होती है । कुसुम श्राकाश में न होने पर भी लता पर हैं। इसलिए उनका संशय हो सकता है। जो वस्तु कहीं नहीं हैं उसका संशय नहीं हो सकता ।
जीव शब्द की सत्ता से भी जीव सिद्ध किया जा सकता है। क्योंकि अजीव शब्द जीव का निषेध करता है। जीव की सत्ता के बिना उसका निषेध नहीं किया जा सकता ।
'आत्मा नहीं है' इस निषेध से भी उसका अस्तित्व सिद्ध . होता है क्योंकि विद्यमान वस्तु का ही स्थान विशेष में निषेध किया जा सकता है। जो वस्तु बिल्कुल नहीं है उसका निषेध भी नहीं किया जा सकता ।