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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चीथा माग ४.३ मानवश जीव में छोटे पड़े के प्रति उचित बर्ताव नहीं रहता। मानी जीव अपने को बड़ा समझता है और दूसरों को अपने से तुच्छ समझता हुआ उनकी अवहेलना करता है। मृदुता अर्थात् सुकोमल वृत्ति से मान पर विजय होती है। कोई भी पदार्थ सदा एक सा नहीं रहता, उसकी पर्याय बदलती रहती हैं। ऐसी दशा में मान करना व्यर्थ है। इस प्रकार विचार करने से मान नष्ट हो जाता है।
(३)माया-मन, वचन और कायाकी कुटिलता माया कहलाती है। इसे परवञ्चना भी कहते हैं ।माया द्वारा मनुष्य दूसरों को ठगना चाहता है। परवश्चना करते समय जीव कभी कभी आत्मवञ्चना मी कर बैठता है।भार्जव (सरलता) से माया पर विजय प्राप्त होती है।
(१)लोम-द्रव्यादि को ग्रहण करने की इच्छा लोम है । मूर्धा, गृद्धिभाव, ममत्वभाव, तृष्णा और असन्तोष लोम के ही पर्यायवाची नाम हैं। लोम के राजीव नही करने योग्य नीच कार्य भी कर बैठता है। संतोष वृत्ति धारण करने से लोम का नाश होता है। इससे इच्छाएं सीमित हो जाती हैं और जीव को सच्चे सुख का अनुभव होने लगता है।
क्रोध, मान आदि का दुष्फल बताते हुए दशवकालिक सूत्र के आठवें अध्ययन में कहा है
कोहो पाई पणासेइ, माणो विषय णासो।' माया मित्ताणि णासेइ, लोभो सव्व विणासपो॥
अर्थात-क्रोध से प्रीति का नाश होता है क्योंकि क्रोधान्ध मनुष्य ऐसे दुर्वचन बोलता है कि प्रीति का सर्वथा उच्छेद हो जाता है। मान विनय का नाश करने वाला है क्योंकि मानी पुरुष अपने से किसी को बड़ा नहीं समझता और इसी लिए वह गुणी पुरुषों की 'सेवा कर विनय प्राप्त नहीं कर सकता । माया मैत्रीभाव का नाश करने वाली है क्योंकि जब मनुष्य का छल प्रकट हो जाता है तब