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श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला शरीर और भाहारक शरीर होता है, वे भी आहारक ही हैं अनाहारक नहीं। एकेन्द्रियों को छोड़ कर शेष तैजस और कार्मण शरीर बाले जीवों में तीन भांगे पाये जाते हैं । अशरीरी अर्थात् सिद्ध मगचान अनाहारक ही होते हैं।
(१३) पर्याप्ति द्वार-आहार पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति, इन्द्रिय पर्याप्ति, श्वासोच्छवास पर्याप्ति, भाषा पर्याप्ति और मन:पर्याप्ति, इन पर्यातियों से युक्त जीवों में तीन मांगे पाये जाते हैं । आहार पर्याप्ति से रहित जीवों में केवल एक भंग पाया जाता है अर्थात् वे अनाहारक ही होते हैं,माहारक नहीं। शरीर पर्याप्ति से रहित जीव किसी समय पाहारक और किसी समय अनाहारक होते हैं, शेष चार पर्याप्तियों से रहित अवस्था में नारकी, देव और मनुष्यों में छः मांगे पाये जाते हैं, पाकी में ए केन्द्रियों को छोड़ कर तीन मांगे होते हैं। भाषा और मनापर्याप्ति से युक्त जीवों में और तिर्यश्च पञ्चेन्द्रिय में तीन भागे पाये जाते हैं।
(पन्नवणा माहारपद २८ उद्देशा २) (८१७)(क) वेरह कर्म काठिया-श्री जैन सिद्धान्त पोल संग्रह, सातवें भाग के पृष्ट १२६ बोल नं. ९८३ प्रश्नोत्तर छत्तीस के अन्तर्गत प्रश्न नं ३२ में इन का वर्णन है। ८१८- क्रोध आदि की शान्ति के तेरह उपाय
नीचे लिखी तेरह वातों का विचार करने से क्रोध आदि पर विजय प्राप्त होती है । वे ये हैं
(१)क्रोध-चमा से क्रोध की शान्ति होती है। क्रोध के वश होकर जीव किसी की बात को सहन नहीं करता । क्रोध में अन्धा हुआ पुरुष हिताहित के विवेक को खो बैठता है। दूसरे का अहित करते हुए वह अपने ही हाथों से स्वयं अपना भी अनिष्ट कर बैठता है। क्षमा धारण करने से सहनशीलता गुण की वृद्धि होती है। इससे क्रोध का उदय ही नहीं होता और उदय में आया हुआ क्रोध विफल . हो जाता है । क्षमा वीर का भूषण है।
(२)मान-अहङ्कार रूप प्रात्मपरिणाम मान कहलाता है।