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श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
फिर मित्र भी उसका विश्वास नहीं करते । वे भी उसे मायाचारी और धोखेबाज जान कर छोड़ देते हैं। लोभ प्रीत्ति, विनय और मैत्रीभाव आदि सब सद्गुणों का जड़मूल से नाश करने वाला है I उवसमेण इणे कोहं, माणं मद्दवया जिये । मायं चज्जब भाषेण, लोभ संतोसो जिये ॥
अर्थात् - शान्ति से क्रोध को, नम्रता से मान को, सरलता से माया को और संतोष से लोभ को जीतना चाहिए ।
( ५ ) राग - राग भाव से संसार की वृद्धि होती है । वैराग्य से राग पर विजय प्राप्त होती है।
(६) द्वेष - मैत्रीभाव का नाश करता है। सब जीवों को श्रात्मतुल्य समझने से मैत्रीभाव प्रकट होता है और द्व ेष का नाश होता है ।
(७) मोह जैसे शराबी मदिरा पीकर भले बुरे का विवेक खो देता है और परवश हो जाता है उसी प्रकार मोह के प्रभाव से जीव सत् असत् के विवेक से रहित हो कर परवश हो जाता है । विवेक से मोह पर विजय होती है । ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मों में मोह सब का राजा कहा गया है। चिवेक ही इसको जीतने का अमोघ उपाय है।
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(८) काम-काम शब्द से यहाँ शब्द, रस, रूप, गन्ध और स्पर्श का ग्रहण होता है । ये सब मोहनीय कर्म के उत्तेजक हैं। काम राग में अन्धा बना हुआ पुरुष निज पर का विवेक खो बैठता है । स्त्री के शरीर के अशुचिपन का विचार करने से काम पर विजय प्राप्त होती' है। शरीर महान् गंदा और अशुचि का भण्डार है। स्त्री के शरीर के बारह द्वारों से सदा अशुचि बहती रहती है। केशर, कस्तूरी, चन्दनादि सुगन्धित द्रव्यों को, बहुमूल्य वस्त्राभूषणों को तथा स्वादिष्ट और रसीले भोजन आदि सभी को अपनी अशुचि के कारण यह शरीर बिगाड़ देता है । सारा शरीर अशुचि से ही बना