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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग
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से मालूम पड़ता है कि परभव में जीव पूर्वभव सरीखा ही रहता है। 'शृगालो वै एप जायते यः सपुरीषो दाते', अर्थात् जो व्यक्ति पुरीष (विष्ठा) सहित जला दिया जाता है वह दूसरे भव में शृगाल होता है। इस वाक्य से दूसरे भव में बदल जाना सिद्ध होता है !
युक्तियाँ भी दोनों पत्तों का समर्थन करती हैं- कारण के अनु सार ही कार्य होता है। जैसे जौ के बीज़ से जौ ही पैदा होते हैं, गेहूँ नहीं। वर्तमान भव का कारण पूर्वभव है । इस लिए पूर्वभव के सदृश ही वर्तमान भव हो सकता है। यह कहना ठीक नहीं है, कार्य का कारण के समान होना एकान्त नियम नहीं है। क्योंकि शृङ्ग से सरं (तृण विशेष ) उत्पन्न हो जाता है । उसी पर सरसों का लेप करने से गन्ध की उत्पत्ति होती है। गाय और मेड़ के लोग से दूब पैदा होता है । इस प्रकार मित्र मित्र वस्तुओं के मिलाने से अनेक प्रकार के वृक्ष उत्पन्न होते हैं । इसी प्रकार गोमय (गोबर) आदि वस्तुओं से बिच्छू आदि अनेक प्राणी तथा दूसरी वस्तुएँ बन जाती हैं । उनमें कहीं भी कार्य और कारण का सादृश्य नहीं दिखाई देता ।
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कारण के अनुरूप कार्य को मान लेने पर भी परभव में विभिन्नता हो सकती है। परभव का कारण इस जन्म का शरीर नहीं है किन्तु कर्म ही है। उनकी विचित्रता के अनुसार परभव में विचित्रता हो सकती है। क्रूर कर्मों वाला जीव नरक, तिर्यञ्च आदि नीच गतियों में उत्पन्न होता है, शुभ कर्मों वाला जीव देव और मनुष्य रूप शुभगति में उत्पन्न होता है । इस लिए कर्मों में विविधता होने के कारण यह नहीं कहा जा सकता कि उत्तरभव में जीव पूर्वभव सरीखे ही रहते हैं । इसके लिए नीचे लिखा अनुमान है - संसारी जीव नारक आदि रूप वाले विचित्र संसार को प्राप्त करते हैं, क्योंकि संसार विचित्र कर्मों का फल है । कर्मों की परिणति विचित्र रूप से होती है, क्योंकि कर्म विचित्र पुद्गल परिणाम रूप हैं।