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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
संसार में प्राणी भिन्न भिन्न प्रकार की क्रियाएँ करते हुए नजर आते हैं । क्रिया के अनुरूप ही फल होने से परभव में फल भी । विचित्र ही होगा ।
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शङ्का - इस भव में होने वाली खेती आदि क्रियाएँ ही सफल हैं, परभव के लिए की जाने वाली दान आदि क्रियाओं का कोई फल नहीं है । पारलौकिक क्रियाओं के निष्फल होने से परमव में उनका कोई असर नहीं होता, इसी लिए परभव में सभी प्राणी एक सरीखे होते हैं ।
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समाधान - इस प्रकार भी सब जीव समान नहीं हो सकते, क्योंकि समानता कर्मों से पैदा होती है। पारलौकिक क्रियाओं को निष्फल मानने पर कर्म नहीं हो सकते और कर्मों के विना जीवों की उत्पत्ति नहीं हो सकती । यदि बिना कर्म के भी समानता मानी जाय तो बिना कुछ किए फल प्राप्ति होने लगेगी और किए हुए दान यदि कर्म बिना फल के नष्ट हो जाएंगे । अथवा पारलौकिक क्रियाओं के न मानने पर कर्मों का सर्वथा अभाव हो जायगा । कर्मों का अभाव होने पर परभव की प्राप्ति ही नहीं होगी । फिर समानता और विषमता की बात ही दूर रह जाती है। यदि कर्मरूप कारण के विना कारण ही भवान्तर की प्राप्ति मानते हो तो भव प्राप्ति की तरह नाश भी ऐसे ही होने लगेगा, फिर संसार का बन्धन काटने के लिए तप नियम आदि का अनुष्ठान व्यर्थ हो जायगा । बिना कारण मानने पर जीवों की समानता की तरह विषमता भी ऐसे ही सिद्ध हो जायगी ।.
शंका- जिस प्रकार कर्मों के बिना ही मिट्टी आदि कारणों से खाभाविक रूप से घटादि कार्य उत्पन्न होते रहते हैं, इसी प्रकार मनुष्य तिर्यश्च आदि अलग अलग जाति के प्राणियों से उन्हीं के समान प्राणी उत्पन्न होते रहेंगे ; कर्मों को मानने की क्या आवश्यकता है?