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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग
समाधान- घटादि कार्य स्वतः उत्पन्न नहीं होते। उन्हें भी कर्ता, करण आदि की अपेक्षा रहती है। इसी प्रकार परभव में होने वाले शरीर को भी श्रात्मा रूप कर्ता और करण की अपेक्षा है । शरीर के लिए कर कर्म ही है।
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शङ्का - घट पट आदि के कर्ता कुम्हार जुलाहा आदि प्रत्यक्ष सिद्ध हैं इस लिए उनमें कर्ता और करण मान लेने चाहिए । शरीरादि कार्य तो बादलों के विकार की तरह खाभाविक ही मानने चाहिए क्योंकि वहाँ कर्ता आदि दिखाई नहीं देते। इस लिए कर्मों की सिद्धि नहीं होती ।
समाधान - शरीर आदि स्वाभाविक नहीं हैं, क्योंकि आदि तथा निश्चित श्राकार वाले हैं। जो वस्तु यादि तथा निश्चित आकार वाली होती है, वह कर्चा करण आदि की अपेक्षा के बिना स्वाभाविक रूप से उत्पन्न नहीं होती, जैसे घट जैसे किसी समय कर्म ही कर्ता रूप में आ जाता है यथा- 'पचति श्रोदनं स्वमेव ' इसी प्रकार नामकर्म शरीरोत्पत्ति में काम कर रहा है।
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. इस प्रकार युक्तियों से समझाकर भगवान ने कहा- सभी वस्तुओं में तीन धर्म रहते हैं। उत्पाद, व्यय और धौम्य । उत्पाद और व्यय की अपेक्षा कोई भी वस्तु पहली पर्याय सरीखी नहीं रहती। जीव भी देव, मनुष्य आदि नवीन पर्याय को प्राप्त करता रहता है। धौव्य की अपेक्षा वस्तुओं की सभी पर्यायों में समानता रहती है। जैसे मिट्टी का गोला घट के रूप में बदलता है । गोले और बड़े का आकार भिन्न भिन्न होने से दोनों में मेद है किन्तु मिट्टी की अपेक्षा दोनों में समानता है। इसी प्रकार देव और मनुष्य भव में बहुत सा मेद है. किन्तु दोनों पर्यायों में आत्मा एक ही होने से दोनों में समानता है। समानता द्रभ्य का धर्म है और विषमता गुणों का। भगवान् महावीर के युक्तियुक्त समाधान द्वारा सुधर्मा स्वामी का