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श्री सेठिया जैन प्रथमाता
कर वे महामुनि अपुनरागति (वह गति जहाँ जाकर फिर कभी लौटना न पड़े) अर्थात् मोक्षगति को प्राप्त हुए।
सरल भाव, कष्ट सहिष्णुता, निरभिमानता, मनासकि, निन्दा और प्रशंसा में समभाव, प्राणी मात्र पर मैत्री भाव, एकान्त वृत्ति तथा सतत अप्रमत्तता ये आठ गुण त्याग धर्म रूपी महल की नींव हैं। यह नींव जितनी हद तथा मजबूत होगी उतना ही त्यागी जीवन उच्च तथा श्रेष्ठ और सुवासित होगा । इस सुवास में अनन्त भवों की वासना रूपी दुर्गन्ध नष्ट भ्रष्ट होजाती है और मात्मा ऊंची उठते उठते अन्तिम ध्येय को प्राप्त कर लेती है।
(उत्तराध्ययन अध्ययन २१) ७८२-अरिहन्त भगवान् के बारह गुण
(१) अशोक वृक्ष (२) देवकत अचित्त पुष्पवृष्टि (३) दिव्य ध्वनि (४) चँवर (1) सिंहासन (६) मामण्डल (७) देव दुन्दुमि (ब)चत्र (ह)भपायापगमातिशय (दानान्तराय आदि१-दोषों से रहित)। (१०) ज्ञानातिशय- सम्पूर्ण, अव्यावाघ, भप्रतिपाती केवल. ज्ञान को धारण करना ज्ञानातिशय है। (११) पूजातिशय-तीनों लोकों द्वारा पूज्य होना तथा इन्द्रकत अष्ट महापातिहार्यादि रूप पूजा से युक्त होना पूजातिशय है। (१२) वागतिशय-पैंतीस अतिशयों से युक्त सत्य और परस्पर पाधारहित वाणी का बोलना वागतिशय (वचनातिशय) है।
(समवायांग ३४ वाँ चौतीस अतिशयों में से ) (हरिभद्रकृत सम्बोषमतरी) ७८३- चक्रवर्ती बारह परत के धारक लाध्य पुरुष चक्रवर्ती कहलाते हैं। वैयार है
(१) भरत (२) सगर (३) मघवान् (१) सनकुमार (५) शान्तिनाथ (६) कुन्थुनाथ (७) भरनाथ (e) अभ्य (९) महापथ