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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग जिस तरह वायु से मेरु कम्पित नहीं होता, उसी तरह परीपहों से कम्पित एवं भयभीत न हो। अपने मन को वश में रख कर सब कुछ समभाव पूर्वक सहन करता रहे।
(८) साधु कमी घमण्ड न करे और न कायर ही पने । कभी अपनी पूजा प्रतिष्ठा एवं प्रशंसा की इच्छा न करे । सरल भाव धारण करे और राग द्वेष से विरत होकर ज्ञान, दर्शन, चारित्र द्वारा मोक्षमार्ग की उपासना करे।
(8) साधु को यदि कभी संयम में अरुचि अथवा असंयम में रुचि पैदा हो तो उनको दूर करे । आसक्ति भाव से दूर रहे और यात्मचिन्तन में लीन रहे। शोक, ममता तथा परिग्रह की तृष्णा छोड़ फर समाधिपूर्वक परमार्थ मार्ग में प्रात्मा को स्थिर करे। "
(१०) छ: काय जीवों के रक्षक साधु उपलेप रहित तथा परनिमित्तक (दसरों के निमित्त बनाये गये) एकान्त स्थानों में अर्थात् स्त्री, पशु पार नपुंसक से रहित स्थानों में रहे। यशस्वी महपियों ने जिस मार्ग का अनुसरण किया था उसी मार्ग का वह भी अनुसरण करे । परीपह उपसर्गों को शान्ति पूर्वक सहन करे। समुद्रपाल योगीश्वर भी इस प्रकार आचरणं करने लगे।
(११) उपरोक्त गुणों से युक्त यशस्वी तथा ज्ञानी समुद्रपाल महर्षि निरन्तर संयम मार्ग में आगे बढ़ते गये । उत्तम संयम धर्म का पालन कर अन्त में केवल ज्ञान रूपी अनन्त लक्ष्मी के स्वामी हुएं । जिस प्रकार आकाश मण्डल में सूर्य शोभित होता है उसी प्रकार वे मुनीश्वर भी इस महीमंडल पर अपने प्रात्म-प्रकाश से दीप्त होने लगे।
(१२)पुण्य और पाप इन दोनों प्रकार के कर्मों का सर्वथा नाश कर, वे समुद्रपाल मुनि शरीर के मोह से सर्वथा छूट गये। शैलेशी अवस्था को प्राप्त हुए और इस संसार रूपी समुद्र से विर