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भी सेठिया जैन ग्रन्थमाला
देश विदेश में विचरता रहे अर्थात् साधु किसी भी क्षेत्र में क्यों न विचरेवह अपनी जीवनचर्या के अनुसार ही आचरण रखे। मिक्षा के समय स्वाध्याय करना अथवा स्वाध्याय के समय सो जाना इत्यादि प्रकार की अकाल क्रियाएं न करे किन्तु अपना सारा कार्य शास्त्रानुसार नियमित समय पर करे । कोई भी कार्य करने से पहले अपनी शक्ति को भाप ले अर्थात् अमुक कार्य को पूर्ण करने की मेरी शशि है या नहीं इस का विचार कर कार्य प्रारम्म करे। यदि कोई उसे कठोर या असभ्य शब्द भी कहे तो भी वह सिंह के समान निडर रहे किन्तु वापिस असभ्य शब्द न कहे।
(३) साधु का कर्तव्य है कि प्रिय अथवा अप्रिय जो कुछ भी हो उसमें तटस्थ रहे । यदि कोई कष्ट भी पा पड़े तो उसकी उपेक्षा कर समभाव से उसे सह ले और यही भावना रक्खे कि जो कुछ होता है अपने कर्मों के कारण ही होता है, इस लिए कभी भी निरुत्साह न हो। अपनी निन्दा या प्रशंसा की तरफ ध्यान न दे।
(४) 'मनुष्यों के तरह तरह के अभिप्राय होते हैं, इसलिए यदि कोई मेरी निन्दा करता है तो यह उसकी इच्छा की बात है इसमें मेरी क्या बुराई है। इस प्रकार साधु अपने मन को सान्त्वना दे। मनुष्य, लियच अथवा देव द्वारा दिए गए उपसर्ग शान्तिपूर्वक सहन करे। (५)जब दुःसख परीपह आते हैं तव कायर साधक शिथिल होजाते हैं किन्तु युद्धभूमि में सब से भागे रहने वाले हाथी की तरह वे वीर श्रेषण निर्ग्रन्थ खेदखिन्न नहीं होते, अपितु उत्साह के साथ संयम मार्ग में आगे बढ़ते जाते हैं।
(६)शुद्ध संयमी पुरुष शीत, उष्ण, देश, मशक, रोग आदिपरीपहों को समभावपूर्वक सहन करे और उन परीपहों को अपने पूर्व कर्मों का परिणाम जान कर सहे और अपने कर्मों का नाश करे। ' (७) विचक्षण साधु हमेशा राग, देष तथा मोह को छोड़ कर