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भी जैन सिद्धान्त बोल सपह, चौथा भाग २५७ जैसा करता है वह वैसा भोगता है यह अटल सिद्धान्त समुद्रपाल के प्रत्येक अंग में व्याप्त हो गया । कर्मों के इस भटल नियम ने उसके हृदय को कंपा दिया । वह विचारने लगा कि मेरे लिए इन भोग जन्य सुखों के कैसे दुःखदायी परिणाम होगे। मैं क्या कर रहा हूँ? यहाँ आने का मेरा कारण क्या है ? इत्यादि अनेक प्रकार के तर्क वितर्क उसके मन में पैदा होने लगे। इस प्रकार गहरे चिन्तन के परिणाम स्वरूप उसको जाति रमरण ज्ञान पैदा हो गया। अपने पूर्वमन को देख कर उसे वैराग्य माव उत्पन्न हो गया ।भपने माता पिता के पास जाफर दीक्षा लेने की प्राज्ञा मांगने लगा। माता पिता की आज्ञा प्राप्त करे उसने दीक्षा अङ्गीकार की और संयम धारण कर साधु बन गया। महाक्लेश, महाभय, महामोह स्था आसक्ति के मूल कारण रूपी धन, वैभव तथा कुटुम्मी जनों के मोह सम्बन्ध फो छोड़ कर उन्होंने रुचिपूर्वक त्याग धर्म स्वीकार कर लिया। वह अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप पाँच महावतों कांवथा सदाचारों का पालन करने लगा और माने वाले परीषदों को जीतने लगा। इस प्रकार वह विद्वान मुनीश्वर जिनेश्वरों द्वारा प्ररूपित धर्म पर दृढ़ बन कर जैन साधु के उदिष्ट मार्ग पर गमन करने लगा। इस मार्ग काकथन चारह गाथाओं में किया गया है। उन बारह गाथाओं का भावार्थ क्रमशः नीचे दिया जाता है
(१: साधु का कर्तव्य है कि वह संसार के समस्त जीवों पर दया भाव रखे अर्थात् 'सत्वेषु मैत्री' का भाव सखे और जो जो कष्ट उस पर पार्ने उनको समभाव पूर्वक सहन करे । सदा प्रखंड प्रमचर्य और संयम का पालन करे । इन्द्रियों को अपने वश में रक्खे
और योगों की अशुभ प्रवृचि का सर्वथा त्याग कर समाधिपूर्वक मितु धर्म में प्रवृत्ति करता रहे। ,
(२)जिस समय जो क्रिया करनी चाहिए उस समय वही करे।