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श्रो सेठिया जैन ग्रन्थमालानगर में रहते हुए उसे कई वर्ष बीत गये। उस के गुणों से धाकृष्ट होकर पिहुण्ड नगर निवासी एक महाजन ने रूप लावण्य सम्पन अपनी कन्या का विवाह पालित के साथ कर दिया। अब वे दोनों दम्पति आनन्दपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगे। कुछ समय पश्चात् वह कन्या गर्भवती हुई अपनी गर्भवतीपत्नी को साथ लेकर पालित श्रावक जहाज द्वारा अपने घर चम्पा नगरी पाने के लिए रवाना हुआ |आसनप्रसवा होने से पालित की पत्नी ने समुद्र में ही पुत्र को जन्म दिया। समुद्र में पैदा होने के कारण उस बालक का नाम समुद्रपाल रक्खा गया । अपने नवजात पुत्र और स्त्री के साथ पालित सकुशल चम्पा नगरी में अपने घर पहुँच गया । सव को प्रिय लगने वाला, सौम्य और कान्तिधारी वह पालक वहाँ सुखपूर्वक बढ़ने लगा। योग्य वय होने पर उसे शिक्षागुरु के पास भेजा गया। विलक्षण बुद्धि होने के कारण शीघ्र ही वह वहचर कलाओं तथा नीति शास्त्र में पारङ्गत हो गया। जब वह यौवन वय को प्राप्त हुआ तब उसके पिता ने अप्सरा जैसी सुन्दर एक महा रूपवती कन्या के साथ उसका विवाह कर दिया। विवाह हो जाने के पश्चात् समुद्रपाल उस कन्या के साथ रमणीय महल में रहने लगा और दोगुन्दक देव (एक उत्तम जाति का देव) के समान कामभोग मोगता हुमा सुखपूर्वक समय बिताने लगा।
एक दिन वह अपने महल की खिड़की में से नगरचर्या देख रहा था कि इतने ही में फाँसी पर चढ़ाने के लिए वध्य भूमि की तरफ मृत्युदण्ड के चिन्ह सहित लेजाए जाते हुए एक चोर पर उसकी दृष्टि पड़ी। उस चोर को देख कर उसके हृदय में कई तरह के विचार उठने लगे। वह सोचने लगा कि अशुभ कर्मों के कैसे कड़वे फल भोगने पड़ते हैं। इस चोर के अशुभ कर्मों का उदय है इसी से इसको यह कड़वा फल भोगना पड़ रहा है। यह मैं प्रत्यक्ष देख रहा है। जो