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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग ७ अनगार इन सब को समभाव से सहन करते थे और विचार करते थे कि मैंने तो इनके सगे सम्बन्धियों को जान से मार डाला था, ये लोग तो मुझे थोड़े में ही छुटकारा देते हैं। ये लोग मेरा कुछ भी नहीं विगाड़ते प्रत्युत ये तो कर्मों की निर्जरा करने में मुझे सहायता देते हैं। इस प्रकार अर्जुन माली अनगार ने निर्जरा की भावना से उन कष्टों को समभाव पूर्वक सहम करते हुए छः महीनों 'के अन्दर ही सव कर्मों का क्षय कर केवलज्ञान केवलदर्शन उपार्जन करके मोक्ष पद प्राप्त कर लिया। ___ यह कथा अन्तगड सूत्र के छठे वर्ग के तीसरे अध्ययन में विस्तार के साथ पाई है। यहाँ तो केवल संचित सार दिया गया है।
(१०)लोक भावना-शिवराज ऋषि ने भाई थी। गङ्गा नदी के किनारे अज्ञान तप करते हुए शिवराज ऋषि को विभङ्गज्ञान पैदा होगया था जिससे वह सात द्वीप और सात समुद्रों तक देखने लगा। अपने ज्ञान को पूर्णज्ञान समझ कर वह यह प्ररूपणा करने लगा कि 'संसार में सात द्वीप और सात ही समुद्र हैं इसके आगे कुछ नहीं है' । 'स्वयम्भूरमण समुद्र तक असंख्य द्वीप और समुद्र है भगवान महावीर स्वामी की इस प्ररूपणा को सुन कर शिवराज ऋषि के हृदय में शंका कांक्षा श्रादि कलुषित भाव उत्पन्न हुए जिससे उसका विभङ्ग ज्ञान नष्ट होगया। वह श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास आया। धर्मोपदेश सुन कर उसने तापसोचित भएडोपकरणों को त्याग कर भगवान के पास दीक्षा अङ्गीकार कर ली। 'द्वीप और समुद्र असंख्यात हैं। भगवान् की इस प्ररूपणा पर उसे दृढ़ श्रद्धा और विश्वास हो गया । इसका निरन्तर ध्यान, मनन
और चिन्तन करने से तथा उत्कृष्ट तप का आराधन करने से शिवराजर्षि को केवलज्ञान और केवलदर्शन उत्पन हो गए और अन्त में मोक्ष पद प्राप्त किया। यह अधिकार भगवती सूत्र, ग्यारहवें