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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला शतक के नवें उद्देशे में है।
(११) बोधि दुर्लभ भावना-भंगवान् ऋषभदेव के 8८ पुत्रों ने भाई थी।जव भरत चक्रवर्ती कुछ प्रदेश के अतिरिक्त छःखएड पृथ्वी का विजय कर वापिस अयोध्या में लौटा तब अपनी आज्ञा मनवाने के लिये एक एक दूत अपने 8८ भाइयों के पास भेजा । दुतों ने जाकर उनसे कहा कि यदि आप अपने राज्य की रक्षा चाहते हैं तो भरत महाराज की आज्ञा शिरोधार्य कर उनकी अधीनता स्वीकार करें । दूतों की बात सुन नर अष्ठाणु ही भाई एक जगह इकट्ठे हुए
और परस्पर विचार करने लगे कि अपने पिता भगवान् ऋषभदेव ने अपने अपने हिस्से का राज्य अलग अलग बांट दिया है । इसमें भरत का कुछ भी अधिकार नहीं है। फिर वह हम से अपनी अधीनता स्वीकारने को क्यों कहता है ? प्रतीत होता है उसकी राज्य तृष्णा बहुत बढ़ी हुई है। बहुत से दूसरे राजाओं का राज्य ले लेने पर भी उसे संतोष नहीं हुआ । उसकी तृष्णा प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है। अब वह हमारा राज्य भी छीनना चाहता है। क्या हमें भाई भरत की अधीनता स्वीकार कर लेनी चाहिये या अपने राज्य की रक्षा के लिये उससे युद्ध करना चाहिये १ इस विषय में हमें भगवान् . ऋषभदेव की सम्मति लेकर ही कार्य करना चाहिये । उनसे पूछे बिना हमें किसी ओर भी कदम न उठाना चाहिये।' इस प्रकार विचार कर वे सभी भगवान ऋषभदेव के पास आये चन्दना नमस्कार कर उन्होंने उपरोक्त हकीकत प्रभु से निवेदन की । भगवान् ने फरमाया कि हे आर्यों ! तुम इस बाहरी राज्य लक्ष्मी के लिये - इतने चिन्तित क्यों हो रहे हो ? यदि कदाचित् तुम भरत से अपने राज्य की रक्षा करने में समर्थ भी हो जाओगे तब भी अन्त में भागे यापीछे इस राज्यलक्ष्मी को तुम्हें छोड़ना पड़ेगा। तुम धर्म की शरण । में चले प्रायोजिससे तुम्हें ऐसी मोच रूप राज्यलक्ष्मी प्राप्त होगी