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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, गैथा भाग
३८६ जिसे कोई नहीं छीन सकता । वह नित्य, स्थायी और अविनाशी है। भगवान् फरमाने लगे
संबुझह किं नवुझह, संबोही खलु पेच्च दुल्लहा। पोहुवणमंतिराइओ, पोसुलभ पुणरावि जीविय।। डहरा वुड्डाय पासह, गम्भत्था विचयंति माणवा। सेणे जह बट्टयं हरे, एवं उखयम्मि तुद्दई ।।
अर्थात्- हे भव्यो ! तुम बोध प्राप्त करो। तुम क्यों नहीं बोध प्राप्त करते ? जो रात्रि (समय) व्यतीत होगई है वह फिर लौट कर नहीं आती और संयम जीवन फिर सुलभ नहीं है।
हे भव्यो ! तुम विचार करो-बालक,बद्ध और गर्भस्थ मनुष्य भी अपने जीवन को छोड़ देते हैं । जैसे श्येन (बाज)पक्षी तीवर पर किसी भी समय झपट कर उसके प्राण हरण कर लेता है, इसी प्रकार मृत्यु भी किसी समय अचानक प्राणियों के प्राण हरण कर लेती है।
मनुष्य जन्म, आर्यदेश, उत्तम कुल, पूर्ण पांचा इन्द्रियों आदि चातों का वारवार मिलना बड़ा ही दुर्लभ है। अत एव तुम सब समय रहते शीघ्र ही चोधि (सच्चा ज्ञान) प्राप्त करने का प्रयत्न करो।
(यगडाग सून प्रथम श्रुतस्कन्ध अध्ययन २ उद्देशा १) भगवान् का उपदेश सुन कर उन्हें वैराग्य उत्पन्न होगया ।राजपाट छोड़ कर भगवान के पास दीक्षा अङ्गीकार कर ली । अन्त में केवलज्ञान, केवलदर्शन उपार्जन कर मोक्ष पद प्राप्त किया।
इनका अधिकार सूयगडांग सूत्र के दूसरे अध्ययन के पहले उद्देशे में (शीलाङ्काचार्य कृत टीक्षा में ) तथा त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र के प्रथम पर्व में है।
(१२) धर्म भावना-धर्मरुचि मुनि ने भाई थी । अपने शिष्य परिवार सहित ग्रामानुग्राम विहार करते हुए धर्मघोष प्राचार्य