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श्री सेठिया जैन्प्रथमाला
चम्पा नगरी के बाहर सुभूमिभाग नामक उद्यान में पधारे। धर्मरुचि मुनि मास पास खमया का पारणा करते थे । मासखमण के पार के दिन गुरु की आज्ञा लेकर वे गोचरी के लिए चम्पानगरी में गये । नागश्री ब्राह्मणी ने जहर के समान कड़वे तुम्बे का शाक मुनि को बहरा दिया | पर्याप्त आहार समझ कर वे वापिस लौट आये । गुरु ने उस आहार को चख कर विष के समान कड़वा और अखादथ समझ कर उन्हें परिठवने की आज्ञा दी । निखद्य स्थान पर जाकर मुनि ने शाक की एक बूंद जमीन पर डाली । घृत आदि सुगन्धित अनेक पदार्थों से सुवासित होने के कारण शाक की उस बूंद पर हजारों चींटियाँ जमा होगई और उसका श्रास्वादन करते ही प्राण रहित हो गईं । सुनि विचारने लगे कि एक बूंद मात्र आहार से इतनी चींटियों की घात हो गई । यदि यह सारा चाहार परठ दिया जायगा तो न मालूम कितने द्वीन्द्रियादि जीवों की घात हो जायगी । यदि मेरे शरीर से इनकी रक्षा हो सकती है तो मुझे यह कार्य करना श्रेयस्कर है । इस प्रकार चींटियों की अनुकम्पा से प्रेरित होकर धर्मरुचि मुनि ने वह सारा शाक खा लिया। मुनि के शरीर में तत्काल कड़वे तुम्बे का विष व्याप्त हो गया 'और वेदना बढ़ने लगी | मुनि ने उसी समय संथारा कर लिया और धर्मध्यान शुक्लध्यान ध्याने लगे । परिणामों की विशुद्धता के कारण शरीर त्याग कर सर्वार्थसिद्ध विमान में तेवीस सागरोपम की स्थिति वाले देव हुए ।
इसका अधिकार ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्र के १६ वें अध्ययन में है। यहाँ पर उन उन कथाओं का इन भावनाओं से सम्बन्ध रखने वाला कुछ अंश संक्षिप्त रूप से दिया गया है। विशेष विस्तार जानने की इच्छा वालों को उन उन स्थलों में देखना चाहिए ।