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श्री जैन सिद्धान्त बोल सप्रह, चौथा भाग
तेरहवां बोल संग्रह
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८१३ - विनय के तेरह भेद
सम्पूर्ण दुःखों के कारणभूत आठ प्रकार के कर्मों का विनयन (नाश) जिसके द्वारा होता है उसे विनय कहते हैं, अथवा अपने से बड़े और गुरुजनों को देश काल के अनुसार सत्कार, सन्मान देना विनय कहलाता है, अथवा
कर्मणां द्राग् विनयनाद्विनयो विदुषां मतः । अपवर्ग फलाढ्यस्य, मूलं धर्मतरोरयम् ॥
अर्थात् - ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मों का शीघ्र विनाशक होने से यह विनय कहा जाता है। मोक्ष रूपी फल को देने वाले धर्म रूपी वृक्ष का यह मूल है। पुरुष भेद से विनय के भी तेरह भेद हैं। वेये हैं—
( १ ) तीर्थङ्कर - साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप चार तीर्थ की स्थापना करने वाले त्रिलोकपूज्य, देवाधिदेव तीर्थकर कहलाते हैं। (२) सिद्ध-आठ कर्मों से रहित, सिद्धगति में विराजमान, अक्षय और अनन्त सुख सम्पन्न सिद्ध कहलाते हैं ।
(३) कुल - एक आचार्य की सन्तति कुल कहलाती है । (४) गण- समान आचार वाले साधुओं का समूह गए है। (५) संघ - साधु साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप चार तीथ का समुदाय संघ कहलाता है ।
(६) क्रिया - शास्त्रोक्त धर्मानुष्ठान क्रिया कहलाती है । (७) धर्म- जो दुर्गति में पड़ते हुए प्राणियों को धारण कर सुगति की ओर प्रेरित करे वह धर्म कहलाता है ।
(८) ज्ञान - वस्तु का निश्चायक ज्ञान कहलाता है । इसके मति, श्रुत आदि पाँच भेद हैं ।