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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग ____३७ भगवान ने व्यक्त स्वामी के हृदय की बात जान कर कहा-हे व्यक्क ! तुम्हारे मन में सन्देह है कि पृथ्वी आदि भूत हैं या नहीं! वेदों में दोनों प्रकार की श्रुतियों मिलने से तुम्हें ऐसा सन्देह हुआ है। एक जगह लिखा है- 'स्वप्नोपमं वै संकलमित्येष ब्रह्मविधि - असा विज्ञेय' । अर्थात् यह सारा संसार स्वप्न की तरह मायामय है। इससे भूतों का अभाव सिद्ध होता है। दूसरी जगह लिखा है-'यावापृथिवी (आकाश और पृथ्वी) देवता, आपो (जल) देवता । इन सब से यह सिद्ध होता है कि पृथ्वी भूत अलग है। इस प्रकार भूतों के अस्तित्व और नास्तित्व के संशय को बताकर भगवान् ने नीचे लिखे अनुसार कहना शुरू किया
हे व्यक्त! तुम्हारा मत है कि यह सारी दुनियाँ स्वप्न के समान कल्पित है, मिथ्या है । इसे वास्तविक सिद्ध करने वाला कोई प्रमाण नहीं है। ___ घट पट आदि वस्तुओं की सिद्धि न स्वतः हो सकती है, न परतः, न दोनों से और न किसी अन्य प्रकार से । कार्य कारण
आदि सारी बातें आपेक्षिक हैं। जितनी वस्तुएँ हैं वे या तो कारण हैं या कार्य । कारण के द्वारा किए जाने पर किसी वस्तु को कार्य कहा जाता है और किसी कार्य को करने पर ही कोई वस्तु कारण कही जाती है। जैसे मिट्टी कारण है और घट कार्य। मिट्टी इसी लिए कारण कही जाती है क्योंकि वह घट रूप कार्य को उत्पन्न करती है और घट इसीलिए कार्य कहा जाता है क्योंकि वह मिट्टी से उत्पन्न होता है। इस लिए कार्यकारणादिपना स्वतः सिद्ध नहीं है। जो वस्तु स्वतः सिद्ध नहीं है वह परतः सिद्ध भी नहीं हो सकती जैसे आकाश के फूल । स्वपर उभय से भी सिद्ध नहीं हो सकती। क्योंकि जो बात अलग अलग किसी वस्तु को सिद्ध नहीं कर सकती, वह इकट्ठी होकर भी उसे सिद्ध नहीं कर सकती । जैसे