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श्री जैन सिद्धान्त बोल समह, चौथा भाग
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दूसरे मारे जावें, स्वयं नहीं, दूसरों पर हुक्म चले, उन पर नहीं । दूसरों को दण्ड मिले, उन्हें नहीं । कुछ समय कामभोग भोग कर मरने के बाद वे असुर आदि नीच गतियों में जन्म लेते हैं। वहां से छूटने पर बार बार जन्म से अन्धे, लुले, लंगड़े, पहरे, गूंगे आदि होते हैं । मोक्ष चाहने वाला जीव इन बारह स्थानों को समझ बूझ कर छोड़ दे। ये सब पाप के स्थान हैं ।
(१३) ईर्यापथिकी-- निर्दोष संयम धारी, कषाय रहित सुनि को यतनापूर्वक गमनागमनादि में जो क्रिया लगती है उस क्रिया कोई पथिकी क्रियास्थान कहते हैं। आत्मभाव में लीन रहते हुए मन, वचन और काया की यतना पूर्वक प्रवृत्ति करते हुए, इन्द्रियों को वश में रखते हुए, सब दोषों से बच कर चलने वाले संयमी के मी हिलना, डुलना, चलना, फिरना आदि क्रियाएं होती रहती हैं। उन क्रियाओं से साधारण कर्मबन्ध होता है । ऐसे कर्म पहले समय में बँधते हैं, दूसरे समय में भोगे जाते हैं और तीसरे समय में छूट जाते हैं । फिर भिक्षु अपने आप निर्मल हो जाता है । प्रवृत्ति मात्र से कर्मबन्ध होता है। ये ही प्रवृत्तियों कपाय सहित होने पर कर्मों के गाढ़ बन्ध का कारण हो जाती हैं । कषायों द्वारा कर्म श्रात्मा से चिपक जाते हैं । चिना कपायों के वे अपने थाप झड़ जाते हैं । यह क्रियास्थान संसार बन्धन का कारण नहीं होता, इस लिए शुभ माना गया है। (सूयगडाग श्रुतस्कन्ध २ अध्ययन २)
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८१५ - प्रतिसंलीनता के तेरह भेद
योग, इन्द्रिय और कपायों को अशुभ प्रवृत्ति से रोकना प्रति-संलीनता है। मुख्य रूप से इसके चार भेद हैं- इन्द्रिय प्रतिसंलीनता, कपाय प्रतिसंलीनता, योग प्रतिसंलीनता और विविक्त शय्यासनता । इन्द्रिय प्रतिसंलीता के पाँच भेद, कषाय के चार, योग के तीन और विविक्त शय्यासनता ये कुल मिला कर तेरह भेद हो जाते