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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला हैं। उनका स्वरूप नीचे लिखे अनुसार है
(१)श्रोत्रेन्द्रिय प्रतिसंलीनता-श्रोत्रेन्द्रिय को विषयों की ओर जाने से रोकना तथा श्रोत्र द्वारा गृहीत विषयों में रागद्वषन करना।
(२)चक्षुरिन्द्रय प्रतिसंलीनता-चक्षु को विषयों की ओर प्रवृत्त होने से रोकना तथा चनु द्वारा गृहीत विषयों में रागादि ने करना
(३)घ्राणेन्द्रिय प्रतिसंलीनता। (४) रसनेन्द्रिय प्रतिसंलीनता ।
(५) स्पर्शनेन्द्रिय प्रतिसंलीनता। इनका स्वरूप भी ऊपर लिखे अनुसार जान लेना चाहिए।
(६)क्रोध प्रतिसंलीनता--क्रोध का उदय न होने देना तथा उदय में आए हुए क्रोध को निष्फल बना देना।
(७) मान प्रतिसंलीनता। (८)माया प्रतिसंलीनता।
(8) लोम प्रतिसंलीनता। इनका स्वरूप क्रोध प्रतिसंलीनता के समान है।
(१०) मन प्रतिसंलीनता--मन की अकुशल प्रवृत्ति को रोकना, कुशल प्रवृत्ति करना तथा चित को एकाग्र स्थिर करना।
(११) वचन प्रतिसलीनता- अकुशल वचन को रोकना, कुशल वचन बोलना तथा वचन को स्थिर करना।
(१२) काय प्रतिसंलीनता-अच्छी तरह समाधिपूर्वक शान्त होकर, हाथ पैर संकुचित करके कछुए की तरह गुप्तेन्द्रिय होकर
आलीन प्रलीन अर्थात् स्थिर होना कायप्रतिसंलीनता है। ' (१३) विविक्त शय्यासनता-स्त्री, पशु और नपुंसक से रहित स्थान में निर्दोष शयन आदि उपकरणों को स्वीकार करके रहना। आराम, उद्यानादि में संथारा अङ्गीकार करना भी विविक्तशय्या- . सनता है। (उववाई, स्त्र २०) (भगवती शतक २५ उद्दशा ७)