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श्री जैन सिद्धान्त बोल सप्रह, चौथा भाग
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८१६-- कायाक्लेश क तेरह भेद
शास्त्रसम्मत रीति के अनुसार आसन विशेष से बैठना कायाक्लेश नाम का तप है । इसके तेरह मेद हैं -
(१) ठाणट्टिइए (स्थानस्थितिक)-कायोत्सर्ग करके निश्चल वैठना ठाणटिइए कहलाता है।
(२) ठाणाइए (स्थानातिग)-एक स्थान पर निश्चल बैठ कर कायोत्सर्ग करना।
(३) उपकुड्ड आसहिए-उत्कुटुक भासन से पैठना। (४) पडिमट्ठाई (प्रतिमास्थायी )-- एकमासिकी, द्विमासिकी आदि प्रतिमा (पडिमा) अङ्गीकार करके कायोत्सर्ग करना।
(५) वीरासहिए (वीरासनिक)-कुर्सी पर बैठ कर दोनों पैरों को नीचे लटका कर बैठे हुए पुरुष के नीचे से कुर्सी निकाल लेने पर जो अवस्था बनती है उस आसन से बैठ कर कायोत्सर्ग करना बीरासनिक कायाक्लेश है। (६) नेसज्जिए (नेपटिक)-दोनों कूल्हों के बल भूमि पर बैठना।
(७) दंडायए (दण्डायतिक)-- दण्ड की तरह लम्बा लेट कर कायोत्सर्ग करना।
(८) लगण्डशायी-टेढ़ी लकड़ी की तरह लेट कर कायोत्सर्ग करना । इस आसन में दोनों एड़ियाँ और सिर ही भूमि को छूने चाहिएं बाकी सारा शरीर धनुषाकार भूमि से उठा हुआ रहना चाहिए अथवा सिर्फ पीठ ही भूमि पर लगी रहनी चाहिए शेष सारा शरीर भूमि से उठा रहना चाहिए।
(8) पायावए (आतापक)-शीत आदि की आतापना लेने चाला । निष्पन्न, अनिष्पन्न और ऊस्थित के मेद से आतापना के तीन भेद हैं । निष्पन्न भातापना के भी तीन भेद हैं-अधोमुख