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श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, चौथा भाग रानानी को सुनायो । यक्षिणी ने अपने मधुर कण्ठ से सभी श्लोक विना कहीं चूके सुना दिए। यक्षदत्ता ने उन श्लोकों को दो बार सुन लिया था। इस लिए वे उसको याद होगए। मन्त्री के बुलाने पर उस ने भी सभी सुना दिए । तीन बार सुनने पर तीसरी लड़की को याद होगए । इसी प्रकार सभी लड़कियों ने उन श्लोकों को सुना दिया।
राजा ने रुट होकर वररुचि का दान बन्द कर दिया। इस के बाद वररुचि ने एक दूसरी चाल चली। रात को जाकर वह गङ्गा में एक-मोहर डाल देता और सुवह सभी लोगों के सामने उसे निकाल कर कहता-यह मोहर मुझे गङ्गा ने दी है। इसी प्रकार वह रोज करने लगा । लोग उसके प्रभाव से चमत्कृत हो गए। धीरे धीरे यह खबर राजा को लगी। उसने सयडाल को कहाअगर वररुचि लोफ में प्रचलित काव्यों को सुनाता है वो गङ्गा सन्तुष्ट होकर दीनारें क्यों देती है ? मन्त्री ने उत्तर दिया
आडम्बरस्स पाओ, पाओ डंभस्स विज्जया पाओ। गलगजिअस्स प्राओ, हिंडइ.धुत्तो चउप्पाओ॥
अर्थात्- धूत पुरुष चार पैरों पर घूमते हैं-आडम्बर, दम्म अर्थात् कपटाई, विधा और गलगर्जित अर्थात् बहुत बातें बनाना।
राजा ने फिर पूछा-यदि यही बात है तो सभी लोग उसके गुणों की प्रशंसा क्यों कर रहे हैं ?
मन्त्री ने कहा-महाराज ! दुनियाँ वास्तविक बात को नहीं पहिचानती। हमें स्वयं वहाँ जाकर देखना चाहिए कि क्या बात है?
दोनों ने प्रातः काल वहाँ जाने का निश्चय कर लिया । मन्त्री ने सन्ध्या समय एक विश्वस्त पुरुष को गङ्गा के किनारे भेजा और कहा-तुम वहाँ छिप कर बैठ जाना । वररुचि पानी में जो कुछ डाले उसे यहाँ ले भाना । उस पुरुष ने वैसा ही किया।
सुवह राजा और मन्त्री गङ्गा के किनारे गए । वररुचि गङ्गा