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श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह. चौथा भाग - ३१ स्थावर के भेद से आत्मा के दो भेद हैं।
भगवान के उपदेश से इन्द्रभूति का संशय दूर हो गया। वे भगवान के शिष्य हो गए और प्रथम गणधर कहलाए। (२) अग्निभूति-इन्द्रभूति को दीक्षित हुआ जानकर उनके छोटे भाई अग्निभृति को बड़ा क्रोध आया। उन्होंने सोचा-महावीर बड़े भारी ऐन्द्रजालिक हैं। उन्होंने अपने वाग्जाल से मेरे भाई को जीत लिया और अपना शिष्य बना लिया। मैं उन्हें जीत कर अपने भाई को वापिस लाऊंगा। यह सोचकर बड़े अभिमान के साथ अग्निभूति भगवान महावीर के पास पहुंचे। भगवान का दर्शन करते ही उनका क्रोध शान्त होगया। अभिमान भाग गया। मुंह से एक भी शब्द न निकल सका। भगवान की सौम्यमूर्ति, दिव्य ललाट तथा शान्त और गम्भीर मुद्रा को देखकर वे चकित रह गए। ऐसा दिव्य स्वरूप उन्होंने न पहले कभी देखा था, न सुना था।
भगवान ने प्रेमभरे शब्दों में कहा-सौम्य अमिभूति। अमिभूति ने सोचा क्या ये मेरा नाम भी जानते हैं ? पर मैं वो जगत्मसिद्ध हूँ। सारा संसार मेरा नाम जानता है। यदि ये मेरे मन के संशय को जान जाँय और उसे दूर करें तभी मान सकता हूँ कि ये सर्वज्ञ हैं। भगवान ने उसके मन की बात जानते हुए कहा-हे श्रमिभूति ! तेरे मन में सन्देह है कि कर्म है या नहीं ? यह सन्देह तुझे परस्पर विरोधी वेद वाक्यों से हुआ है। वेदों में एक जगह पाया है_ 'पुरुष एवेदं सर्व यन्तं यच्च भाव्यम्, उतामृतत्वस्येशानो यदन्ननातिरोहति । यदेजति यन्नेजति यह रे यदु अन्तिके यदन्तरस्य सर्वस्य यदुत सर्वस्यास्य बाह्यत' इत्यादि। __ अर्थात्-यह सारा संसार पुरुष अर्थात् आत्मरूप ही है । भूत .
और भविष्यत् दोनों आत्मा अर्थात् ब्रह्म ही हैं। मोक्ष का भी वही स्वामी है जो अन्न से बढ़ता है, जो चलता है अथवा नहीं चलता।