________________
२९
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग जो दर है और समीप है। जो इस ब्रह्माण्ड के भीतर है या बाहर है वह सब ब्रह्म ही है।
इससे सिद्ध होता है कि ब्रह्म के सिवाय और कोई पदार्थ नहीं है। कर्म या पुण्य पाप वगैरह भी कुछ नहीं हैं । इसके विरुद्ध दूसरी श्रुति है
पुण्यः पुण्येन कर्मणा पापः पापेन कर्मणा,इत्यादि । इस श्रुति से कर्मों का अस्तित्व सिद्ध होता है । कर्मों का प्रत्यक्ष न होने से वे और किसी प्रमाण द्वारा भी नहीं जाने जा सकते । इस सन्देह को दूर करने के लिए भगवान् ने नीचे लिखे अनुसार कहना शुरू किया
हे सौम्य ! मैं कर्मों को (जो कि एक प्रकार का परमाणु पुद्गलमय द्रव्य है) प्रत्यक्ष देख रहा हूँ। तुम भी इन्हें अनुमान द्वारा जान सकते हो इस लिए कर्मों के विषय में सन्देह नहीं करना चाहिए। नीचे लिखे अनुमानों से कर्मों का अस्तित्व सिद्ध होता है
सुख और दुख के अनुभव का कोई कारण है क्योंकि ये कार्य हैं। जैसे अङ्कर । सुख और दुःख के अनुभव का कारण कर्म ही है।
शङ्का-माला, चन्दन, अङ्गना आदि इष्ट वस्तुएँ सुख का कारण हैं और साँप, विष, काँटा श्रादि अनिष्ट वस्तुएँ दुख का । इस प्रकार प्रत्यक्ष मालूम पड़ने वाले कारणों को छोड़ कर प्रत्यक्ष न दीखने वाले कर्मों की कल्पना से क्या लाभ ? दृष्ट को छोड़ कर अदृष्ट की कल्पना करना न्याय नहीं हैं। ___ समाधान-दो व्यक्तियों के पास इष्ट और अनिष्ट सामग्री बराबर होने पर भी एक सुखी और दूसरा दुखी मालूम पड़ता है । इस प्रकार का भेद किसी अदृष्ट कारण के बिना नहीं हो सकता और वह अदृष्ट कारण कर्मवर्गणा ही है।
बालक का शरीर किसी पूर्व शरीर के बाद उत्पन्न होता है,