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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग ३३क्योंकि इन्द्रियादि वाला है। जैसे युवा शरीर। इस अनुमान के द्वारा जन्म से पहले किसी शरीर का अस्तित्व सिद्ध होता है जो बालक के शरीर का कारण है । पूर्व जन्म का शरीर तो इसका कारण नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह पूर्वजन्म में ही छूट जाता है, विग्रहगति में नहीं रहता । जो कार्य की उत्पत्ति के समय अवश्य विद्यमान रहता है उसे ही कारण कहा जा सकता है। पूर्वजन्म का शरीर नवीन शरीर उत्पन्न होने से बहुत पहले नष्ट हो जाता है इसलिए वह नवीन शरीर का कारण नहीं कहा जा सकता । दूसरी बात यह है कि बिना शरीर के जीव की गति नहीं होती। विग्रह गति में स्थूल शरीर न होने पर भी सूक्ष्म शरीर रहता है। वही सूक्ष्म शरीर कार्मण (कर्मों का समूह रूप) है। ___ दान आदि क्रियाएं फल वाली हैं, क्योंकि वेचेतन द्वारा की जाती हैं। जो क्रियाएँ चेतन द्वारा की जाती हैं उनका फल अवश्य होता है और वह फल कर्म ही है।
शङ्का-दान देने से चित्त प्रसन्न होता है। इस लिए चित्त की प्रसन्नता ही दान आदि क्रियाओं का फल है। कर्म रूप फल मानने
की कोई आवश्यकता नहीं है। ___ समाधान-चित्त की प्रसन्नता के प्रति दान निमित्त है, जैसे मिट्टी घड़े के प्रति निमित्त है। जिस प्रकार घड़ा मिट्टी का फल नहीं कहा जा सकता उसी तरह चित्त की प्रसन्नता दान आदि का फल नहीं कहा जा सकता। इसलिए दान आदि का फल कर्मही है। ___कर्मों के कार्य शरीर आदि के मूर्त होने से कम मूर्त है इत्यादि युक्तियों से मूर्व कर्मों का अस्तित्व सिद्ध होने पर और अमिभूति का संशय दूर हो जाने पर वे भगवान् के शिष्य बन गए। (३) वायुभूति-अमिभूति को दीक्षित हुआ जान कर उनके छोटे भाई वायुभूति ने सोचा- भगवान् वास्तव में सर्वज्ञ हैं, तमी तो