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भी जैन सिद्धान्त बोल सप्रह, चौथा भाग ३७६ प्रपल वेग से अनित्य भावना का विचार करते हुए भरत महाराज क्षपक श्रेणी में प्रारूढ हुए । चढ़ते हुए परिणामों की प्रबलता से घाती कर्मों का क्षय कर केवल ज्ञान, केवल दर्शन उपार्जन कर लिये और अन्त में मोक्ष पद प्राप्त कर लिया।
भरत चक्रवर्ती का अधिकार त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र के प्रथम पर्व, सर्ग ६ में है।
(२) अशरण भावना-अनाथी मुनि ने भाई थी। आँखों में उत्पन्न हुई अत्यन्त वेदना के ममय अनाथी विचारने लगे कि माता, पिता, भाई, पहिन, पत्नी आदि तथा धन सम्पचि आदि सारे सांसारिक साधन मेरी इम वेदना को शान्त करने में समर्थ नहीं हो रहे हैं। यदि कदाचिन ये साधन मेरी बाहरी वेदना को शान्त करने में समर्थ हो मी जाये तो भी आत्मवेदना को दूर करने की
औषधि तो बाहर कहीं भी मिल नहीं सकती। आत्मा की अनाथता (अशरणा) को दूर करने में कोई भी वाह्य शक्ति काम नहीं श्रामकती । आत्माको सनाथ पनाने के लिए तो आत्मा ही समर्थ है। इस प्रकार अशरण भावना के प्रबल वेग से उन्हें संसार से
वैराग्य हो गया। राज्य के समान ऋद्धि, भोग विलास, रमणियों के आकर्षण तथा माता पिता के अपार अपत्य स्नेह को त्याग कर वेसंयमी बन गये। एक समय वे मुनि एक उद्यान में ध्यानस्थ बैठे थे। महाराज श्रोणिक उधर आ निकले । अनाथी मुनि के अनुपम रूप और कान्ति को देख कर श्रोणिक राजा को अति विस्मय हुमा। वे विचारने लगे-इन आर्य की कैसी अपूर्व सौम्यता, क्षमा, निर्लोभता तथा भोगों से निवृत्ति है ? मुनि के चरणवन्दन कर राजा श्रेणिक पूछने लगाहे आय ! इस तरुणावस्था में भोगविलास के समय आपने दीक्षा क्यों ली है ? इस उग्र चारित्र को धारण करने में आपको ऐसी क्या प्रेरणा मिली है जिससे आपने इस युवावस्था