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श्री जैन सिद्धान्त वोल संग्रह, चौथा भाग
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विद्या सम्पन्न आचार्यों द्वारा रचे गए शास्त्र अंगवा कहे जाते हैं। अंगप्रविष्ट के बारह भेद हैं- (१) श्राचाराङ्ग, (२) सूयगडांग, (३) ठायांग, (४) समवायांग, (५) विवाहपन्नत्ती (व्याख्याप्रज्ञप्ति या भगवती ), (६) नायाधम्मकहाओ (ज्ञाताधर्मकथा ), (७) उवासगदसाओ, (८) अंतगडदसाओ, (६) अणुत्तरोववाइनदस (१०) पहागरणाई (प्रश्नव्याकरण), (११) विवागसु (विपाक भूत), (१२) दिट्टिवाओ ( दृष्टिवाद ) 1
इनमें बारहवाँ दृष्टिवाद आज कल उपलब्ध नहीं है। दूसरे सूत्रों के भी कुछ अंश नहीं मिलते। नंदी सूत्र के अनुसार उनकी गाथा आदि की संख्या देकर उपलब्ध सूत्रों की विषयसूची दी जाएगी ।
( १ ) आचारांग – महापुरुषों के द्वारा सेवन की गई ज्ञान, दर्शन चारित्र आदि के श्राराधन करने की विधि को आचार कहते हैं। श्राचार को प्रतिपादन करने वाला आगम आचाराङ्ग कहा जाता है । नन्दी सूत्र के अनुसार इसका स्वरूप निम्न लिखित है । मुख्यरूप से इसमें साधुओं की चर्या से सम्बन्ध रखने वाली सभी शिक्षाएं हैं। वे इस प्रकार हैं
श्राचार - ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप मोक्ष मार्ग की श्राराधना के लिए किया जाने वाला विविध श्राचार।
गोचरी - भिक्षा ग्रहण करने की विधि । विनय-ज्ञान और ज्ञानी आदि की विनय भक्ति ।
विनेय-शिष्यों का स्वरूप और उनका आचार ।
भाषा-सत्या और असत्यामृषारूप भाषा का स्वरूप ।
भाषा - मृपा और सत्यामृषा (मिश्र) रूप श्रभाषा का स्वरूप । चरण- पाँच महाव्रत, दस प्रकार का श्रमण धर्म, सत्रह प्रकार का संयम,दस प्रकार का वैयावृत्य, नव बाढ़ ब्रह्मचर्य की, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, बारह प्रकार का तप और चार कपायों का निग्रह धरण