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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
कहलाते हैं। करण-चार पिंडविशुद्धि, पाँच समिति, बारह भावना, बारह मिक्खु पडिमा, पाँच इन्द्रियों का निरोध, पच्चीस प्रकार की पडिलेहणा, तीन गुप्तियाँ और चार अभिग्रह करण कहलाते हैं। यात्रा-संयमरूप यात्रा का पालन । मात्रा-संयम की रक्षा के लिए परिमित आहार लेना। वृत्ति-विविध अमिग्रहों को धार कर संयम की पुष्टि करना।
इन में कुछ विषयों का एक दूसरे में अन्तर्भाव होने पर भी. जहाँ जिसका प्रधान रूप से वर्णन है, वहाँ वह दुवारा दे दिया गया है।
प्राचार के संक्षेप से पाँच भेद हैं-(१) ज्ञानाचार(२) दर्शनाचार (३) चारित्राचार (४) तप आचार (५) वीर्याचार।
उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी रूप एक काल चक्र की अपेक्षा से आचाराङ्ग सूत्र की वाचनाएं परिमित हुई हैं। भूत और भविष्यत काल की अपेक्षा से अनन्त वाचनाएं हैं। उपक्रम आदि अनुयोग संख्यात हैं । प्रत्येक अध्ययन के प्रारम्भ में अनुयोग आता है इस. लिए श्राचारांग के संख्यात अध्ययन होने के कारण अनुयोग भी संख्यात हैं। संख्यात वेढ (एक प्रकार का छन्द) हैं। संख्यात श्लोक हैं।संख्यात नियुक्तियाँ हैं। संख्यात प्रतिपत्तियाँ (द्रव्यादि पदार्थों को स्वीकार करना अथवा पडिमा या अभिग्रह अङ्गीकार करना) हैं।
ज्ञान की अपेक्षा क्रिया का प्राधान्य होने से क्रियारूप प्राचार बताने वाला यह सत्र भी प्रधान है, इसी लिए यह पहला अंग है। अथवा शुद्ध आचार के लिए ज्ञान और क्रिया दोनों की आवश्यकता होती है, इसी लिए प्राचार का प्रतिपादक यह अंग पहले बताया गया है।
इसमें दो श्रुतस्कन्ध (अध्ययनों का समुदाय) हैं। पहले श्रुतस्कन्ध में नौ अध्ययन हैं और दूसरे में सोलह ।पचासी उद्देशे हैं।