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श्री सेठिया जैन ग्रन्धमाला सुख की प्राप्ति पाप कर्मों के सर्वथा नाश होने पर ही होती है और फिर पुण्य की अपेक्षा नहीं रहती। सिद्धावस्था में विषय सुख से विलक्षण परम सुख की प्राप्ति होती है । विषय सुखों में लिप्त प्राणी उस अनुपम सुख की कल्पना भी नहीं कर सकता। सिद्धों का सुख नित्य, अव्यावाध तथा वास्तविक होता है।
वेदपदों से भी यही सिद्ध होता है कि जीव जब अशरीर अर्थात् मुक्त हो जाता है तभी उसे दुखों से छुटकारा मिलता है। इस लिए यह सिद्ध हुआ कि निवांण अवस्था में जीव विद्यमान रहता है। राग, द्वेष आदि विकार तथा दुःख सर्वथा क्षीण हो जाते हैं और जीव उस समय परम आत्मीय आनन्द का अनुभव करता है।
इस प्रकार समझाने पर प्रभासस्वामी का संशय दूर हो गया। वे भगवान महावीर के शिष्य हो गए और ग्यारहवें गणधर कहताए।
(विशेषावश्यक भाष्य गाथा १५४६ से २०२४)
(हरिभद्रीयावश्यक टिप्पण) (समवायाग ११वा) ७७६- ग्यारह अंग
जिस प्रकार ब्राक्षण संस्कृति का आधार वेद, बौद्ध संस्कृति का त्रिपिटक और ईसाइयों का आधार वाइवल है उसी तरह जैन संस्कृति का प्राधार गणिपिटक या बारह अंगसूत्र हैं। नन्दीसत्र में अवज्ञान के चौदह भेद बताए गए हैं-उनमें तेरहवां अंग प्रविष्ट है। मुख्य रूप से अतज्ञान के दो भेद हैं-अंग प्रविष्ट और अंगबाह्य । आचाराङ्ग आदि चारह अंगप्रविष्ट हैं। इनके अतिरिक्त सभी सूत्र भंग वाह्य गिने जाते हैं। जिस प्रकार पुरुष के शरीर में २ पैर २ जंघाएं, २ ऊरु, २ गावाई (पसवाड़े), २ वाहें, १ गरदन और १ सिर बारह अंग हैं उसी प्रकार श्रुतरूपी पुरुष के १२ अंग हैं। अथवा जिन शास्त्रों को तीर्थङ्करों के उपदेशानुसार गणधर भगवान् स्वयं रचते हैं, वे श्रगान कहे जाते हैं। गणघरों के अतिरिक्त