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श्री जैन सिद्धान्त वोल संग्रह, चौथा भाग
भयङ्कर रूप में खड़ी हो जाती है । इसलिए दुःख का कारण होने से क्षणिक तृप्ति भी दुःख ही है। अज्ञानी मनुष्य उसे सुख समझता है। जैसे अपथ्य भोजन खाने में स्वाद होने पर भी परिणाम में बुरा है इसी प्रकार सांसारिक सुख भी बुरे हैं।
वास्तविक सुख तभी होता है जब पुराना रोग विनकुल कट • जाय, नया पैदा होने के कारण न रहे। ऐसी अवस्था मोक्ष ही
है। वहॉ इच्छा, राग, द्वेष आदि सभी दुःख के कारण नष्ट हो जाते हैं और कर्म न होने से नवीन उत्पन्न नहीं होते । इस लिए वहीं पर दुःख का सर्वथा नाश और सुख का आत्यन्तिक लाभ होता है । जिस महापुरुष ने मानसिक विकारों को जीत लिया उसे तो यहाँ भी परम सुख प्राप्त है । देवों की विशाल ऋद्धि और चक्रवर्ती का विशाल साम्राज्य भी उसके सामने तुच्छ हैं। इसी लिए कहा हैनिर्जितमदमदनानां, वाक्कायमनोविकाररहितानाम् । विनिवृत्तपराशानामिहैव मोक्षः सुविहितानाम् ॥
(प्रशमरति २३८ श्लोक) अर्थात् जिन्होंने मद और मदन (काम) को जीत लिया है, जो मन, वचन और काया के विकार से रहित हो गए हैं, जो सब आशाओं से परे हैं तथा समाधियुक्त हैं उन्हें इसी जन्म में मोच है।
जिस प्रकार आत्मा के अनन्तज्ञान गुण को ज्ञानावरणीय कर्म ढक देता है और चनु आदि इन्द्रियाँ घट पटादि के ज्ञान में सहायक होती हैं, इसी प्रकार आत्मा का अनन्त सुख रूप गुण पाप कर्मों द्वारा ढका रहता है। पुण्य कर्म समय समय पर क्षणिक सुखानुभव के लिए सहायक होते हैं। जिस प्रकार पूर्ण ज्ञान ज्ञानावरणीय के सर्वथा नाश होने पर ही होता है और फिर इन्द्रियादि करणों की आवश्यकता नहीं रहती, इसी प्रकार आत्मा को पूर्ण