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श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
उचर-पुण्य से होने वाला सुख वास्तव में सुख नहीं है क्योंकि वह कर्मों के उदय से होता है और उन कमों के हट जाने पर नहीं होता। इसी लिए बड़े बड़े चक्रवर्ती या देव कोई भी संसारी जीव वास्तव में सुखी नहीं है।
शङ्का-यदि संसार में होने वाला सुख कर्मों के कारण वास्त. विक नहीं है तो संसार में होने वाला दुःख भी कर्मों के कारण नहीं मानना चाहिए । इस लिए स्वयं प्रात्मा द्वारा अनुभव किए जाने वाले सुख और दुःख को वास्तविक न कहना ठीक नहीं है।
समाधान-संसारी जीवों को वास्तव में सुख का अनुभव नहीं होता। जिस प्रकार भार ढोने वाला व्यक्ति थोड़ी देर के लिए भार हट जाने पर अपने को सुखी समझने लगता है, अथवा प्यासा पानी मिल जाने पर अपने को सुखी समझता है, इसी प्रकार प्रत्येक प्राणी थोड़ा सा दुःख दूर होने पर अपने को सुखी समझने लगता है। उसे वास्तव में सुख कुछ नहीं है। मन में रही हुई काम वासना से एक तरह की बेचनी पैदा होती है और वह क्षण भर के लिए स्त्रीसम्भोग से शान्त हो जाती है तो मनुष्य उसे सुख समझने लगता है। यदि स्त्री का आलिङ्गन वास्तव में सुख देने वाला हो तो वासना रहित व्यक्ति को क्यों नहीं सुख देता । बालक या वृद्ध जिसके हृदय में वासना नहीं है उसके सामने स्त्री के विलास बिल्कुल फीके हैं। जो व्यक्ति किसी बीमारी से व्याकुल हो रहा है उसे कामिनियों की चेष्टाएं कड़वी लगती है, इस लिए संसार की किसी वस्त को वास्तव में सुख देने वाली नहीं कहा जा सकता। जैसे खुजली रोग वाला अपने अङ्ग को खुजलाने में सुख समझता है इसी प्रकार संसारी प्राणी अपनी इच्छाओं की क्षणिक तृप्ति में सुख मान लेते हैं। जैसे नाखून से खुजाने का परिणाम भयङ्कर खुजली होता है उसी प्रकार एक इच्छा को पूर्ण करने से नई नई इच्छाएं