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श्री जैन सिद्धान्त बोल सपह, चौथा भाग ३ शोक, सुधा, प्यास, शीत, उष्ण, काम, क्रोध, मद, शाट्य, तृष्णा, राग, द्वेष, चिन्ता, उत्सुकता आदि समो दुःख नष्ट हो जाते हैं, इसलिए उन्हें परम मुख प्राप्त होता है जैसे वीतराग मुनि को। लकड़ी
आदि में ऊपर लिखी बातें न होने पर भी जड़ होने से उसे सुख का अनुभव नहीं होता, तथा मुक्त जीव अपने ही प्रकाश से प्रकाशित होते हैं क्योंकि उनके आवरण सम्पूर्ण रूप से नष्ट हो गये हैं। स्थिनः शीतांशुवज्जीवः, प्रकृत्या भावशुद्धया ।
चन्द्रिकावच विज्ञानं, तवावरणमभ्रवत् ॥ अर्थात्-अपनी शुद्ध प्रकृति में रहा हुआ जीव चन्द्रमा के समान है उसका ज्ञान चॉदनी की तरह है और आवरण बादलों सरीखा है। स व्यावाधाभावात् सर्वज्ञत्वाच भवति परमसुखी। व्यावाधाभावोऽन्न स्वच्छंस्य ज्ञस्य परमसुखम् ॥ __ अर्थात्-किसी तरह की वाघा (अड़चन या इच्छा) न होने से जीव परम सुख वाला है । किसी प्रकार की बाधा तथा आवरण का न होना ही परम सुख है।
शङ्का-समी जीव इन्द्रियादि करणों द्वारा जानते हैं । मुक्त जीवों के करण न होने से उन्हें सर्वज्ञ नहीं मानना चाहिए।
समाधान-जानना वास्तव में प्रात्मा का स्वभाव है। ज्ञानावरणीय आदिकर्मों कापरदा पड़ा रहने के कारण संसारी जीव इन्द्रियों की सहायता के बिना नहीं जान सकते । मुक्त जीवों का परदा हट जाने के कारण वे आत्मज्ञान द्वारा संसार की सभी वस्तुओं को जानते हैं। उन्हें करणों की आवश्यकता नहीं है।
प्रश्न-मुख का कारण पुण्य है और दुःख का पाप मुक्त आत्माओं को जैसे पाप नष्ट हो जाने के कारण,दुःख नहीं होता, उसी प्रकार पुण्य नष्ट हो जाने के कारण सुख भी नहीं होना चाहिए। फिर मोक्ष में अव्यावाध मुख का कहना मिथ्या है।
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