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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग ४६७ को सूचित करने वाली प्राकृति से ही कोई नाथ नहीं बनता। आप स्वयं अनाथ है, फिर मेरे नाथ कैसे बन सकते हैं? आपकी शरण लेने पर भी शत्रु मेरा पीछा न छोड़ेंगे। फिर निश्चिन्त होकर सुखों को कैसे भोग सकता हूँ?
राजा ने फिर पूछा-मुनिवर में विशाल साम्राज्य का अधिपति हूँ। मेरी चतुरङ्गिनी सेना शत्रु के हृदय में भय उत्पन्न करती है। मेरे प्रताप के कारण बड़े बड़े वीर सामन्त मुझे सिर नमाते हैं। सभी शत्रुओं को मैने नष्ट कर डाला है। मेरी आज्ञा का उल्लंघन करने की किसी में भी शक्ति नहीं है। मन चाहे सुखों का स्वामी हूँ। संसार के सभी भोग मेरे पास मौजूद हैं। फिर मैं अनाथ कैसे हूँ?
मुनि ने उत्तर दिया-राजन् ! आप इस बात को नहीं जानते, वास्तव में अनाथ कौन है। मेरा वृत्तान्त सुनने पर आपको मालूम हो जायगा कि वास्तव में अनाथ कौन है और मैं अपने को अनाथ क्यों मानता हूँ। यह कह कर मुनि ने अपनी कहानी शुरू की
मेरे पिता कौशाम्बी के बहुत बड़े सेठ थे। उनके पास अपार धन था। मुझे प्राणों से भी अधिक प्यार करते थे। उस समय मेरा नाम संजय था। एक बार मेरे शरीर में भयङ्कर रोग उत्पन्न हुआ। सभी अंगों में जलन होने लगी। आँखों में, कमर में और पसवाड़ों में मयङ्कर शूल उठने लगी। रोग को शान्त करने के लिए मेरे पिता ने अनेक वैद्य तथा मन्त्र तन्त्र आदि जानने वालों को बुलाया। जिसने जो कहा वही उपचार किया गया किन्तु रोग शान्त न हुआ । पिताजी ने यहाँ तक कह दिया कि जो संजय को स्वस्थ कर देगा उसे सारा धन दे दूंगा।
माता मेरे दुःख से दुखी होकर दिन रात रोया करती थी। छोटे बड़े भाई मेरी सेवा के लिए खड़े रहते थे। दुःख से आखों में आँसू भर कर मुझे निहारते रहते थे। स्त्री मेरे पैरों में गिर कर