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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
आश्चर्य चकित होकर राजा मुनि के पास आया । वन्दना नमस्कार के बाद विनय से हाथ जोड़ कर उसने पूछा- भगवान् ! भी आप की युवावस्था है। अपूर्व शारीरिक सम्पत्ति प्राप्त हुई है । यह अवस्था सांसारिक सुख भोगने की है। ऐसे समय में भी आपने समस्त सांसारिक भोगों को छोड़ कर कठोर मुनिव्रत क्यों अङ्गीकार किया ! इस बात को जानने के लिए मेरा मन बहुत उत्कण्ठित है। यदि किसी प्रकार की बाधा न हो तो बताने की कृपा कीजिए ।
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मुनि ने उत्तर दिया- महाराज ! मैं अनाथ हूँ । विविध प्रकार के शत्रु कष्ट देने लगे, उस समय मुझे अभय दान देने वाला कोई न मिला | इस प्रकार अत्यन्त दुखी होकर मैंने व्रतों की शरण ली।
यह सुन कर राजा हँसते हुए बोला-भगवन् ! जहाँ आकृति होती है, वहाँ गुण भी अवश्य रहते हैं। इस आकृति से आप में ऐसे गुण दिखाई दे रहे हैं, जिससे संसार की सारी सम्पत्तियाँ वशमें की जा सकती हैं। कहा भी है
शूरे त्यागिनी विदुषि व वसति जन, स च जनाद्गुणी भवति । गुणषति घनं घनाच्छी, श्रीमत्याज्ञा ततो राज्यम् ॥ अर्थात् - शूरवीर, त्यागी और विद्वान् को लोग मानते हैं । उसी से वह गुणी कहा जाता है । गुणवान् को धन की प्राप्ति होती है।. धन से प्रभाव होता है । प्रभाव से आज्ञा चलती है और उससे राज्य की प्राप्ति होती है ।
आपके समान व्यक्ति तो दूसरों का नाथ बन सकता है। यदि अनाथ होने मात्र से आपने दीक्षा ली है तो मैं आपका नाथ होता हूँ । मेरे रहते हुए आपका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। आप निश्चिन्त होकर सांसारिक सुखों को भोगिए ।
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सुनि ने उत्तर दिया- राजन् ! शूरता, उदारता आदि गुणों
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