________________
४६८
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला कहतीथी-नाथ! आपको क्या होगया वह इस प्रकारसतत विलाप करती रहती थी। दूसरे सम्बन्धी, मित्र, दास, दासी आदि सभी मेरे दुख से परम दुखी थे। दिन रात मेरे पास खड़े रहते। क्षण भर भी इधर उधर न होते किन्तु कोई मेरी वेदना को कम न कर सका। उस समय मुझे ज्ञान हुआ कि सांसारिक प्राणी अनाथ है। दुःख आने पर धन, मित्र श्रादि कोई काम नहीं आता। उसे भोगना ही पड़ता है। - मैंने फिर सोचा-इस समय मुझे तीव्र वेदना हो रही है। इस से भी बढ कर कई प्रकार की वेदनाएं नरक आदि गतियों में मैंने भोगी हैं। इन दुःखों से छुड़ाने की शक्ति किसी में नहीं है। इन कष्टों का मूल कारण कषाय रूपी शत्रु हैं। ये सभी संसारी जीवों के पीछे लगे हुए हैं। यदि मैं किसी प्रकार इस रोग से छूट गयातो कषायों का नाश करने के लिये मुनिवत अंगीकार कर लगा। चारित्र ही ऐसा नाथ है जो सभी जीवों की दुःख से रक्षा कर सकता है। इस प्रकार सोचने पर उसी रात को मेरी वंदना शान्त हो गई।प्रातः काल होते ही मैंने माता पिता आदि सभी सम्बन्धियों को पूछ कर विधि पूर्वक दीक्षा ले ली। अठारह पापों का त्याग करके मैं अनगार बन गया।
राजन् ! संसारी जीव चारों गतियों में चक्कर काटते रहते हैं । अनेक प्रकार के शारीरिक और मानसिक कष्ट उठाते हैं। धर्म को छोड़ कर उन की रक्षा करने वाला कोई नहीं है। इस लिए मैंने धर्म की शरण ली है।
यह सुन कर श्रेणिक बहुत प्रसन्न हुआ और मुनि की प्रशंसा करने लगा- भगवन्! आपने मुझे अनाथता का वास्तविक स्वरूप समझा दिया। आपका जन्म सफल है । आपने सकल संसार को अनाथ समझ कर सभी प्रकार के शारीरिक और मानसिक दुःखों का सर्वथा नाश करने वाले, कषाय रूपी शत्रु का दमन करने