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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग
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वाले तथा सभी के नाथ धर्म की शरण ली है।
इम प्रकार मुनि की स्तुति करता हुआ श्रेणिक अपने निवास स्थान पर चला गया | गुणों की स्तुति करने से उनके प्रति श्रद्धा बढ़ती है। इस से सम्यक्त्व दृढ होता है तथा श्रात्मा को उन गुणों की प्राप्ति होती है । इस लिए मुमुक्षु को श्रात्मा के गुणों की स्तुति रूप उपवृन्हा करनी चाहिए ।
( ११ ) स्थिरीकरण के लिए श्रार्यापाढ आचार्य का दृष्टान्तवत्सदेश में बहुश्रुत, विश्ववत्सल तथा बहुत बड़े शिष्य परिवार वाले आर्याषाढ़ नाम के आचार्य रहते थे । उनके गच्छ में जब कोई साधु अन्तिम समय आया जान कर संथारा करता तो आचार्य उसे धर्मध्यान का उपदेश देते तथा ऐसा प्रयत्न करते जिस से अन्त तक उमके भाव शुद्ध रहें । अन्त में आचार्य उसे कहते कि देवगति में उत्पन्न हो कर तुम मुझे अवश्य दर्शन देना । इस प्रकार श्राचार्य ने बहुत शिष्यों को कहा किन्तु कोई स्वर्ग से नहीं आया ।
एक वार आचार्य के किसी प्रिय शिष्य ने संधारा किया | श्राचार्य ने बड़ी सावधानी के साथ उसका संथारा पूरा कराया और अन्त में उसे प्रतिज्ञा करवा कर गद्गद् वाणी से कहा- वत्स ! मेरा तुम पर बहुत स्नेह है। तुम भी मुझे बहुत मानते हो । स्वर्ग में जानें पर तुम मुझे एक बार अवश्य दर्शन देना । यही मेरी बार बार प्रार्थना है । मैंने इस प्रकार बहुत से साधुओं को कहा था किन्तु एक भी नहीं आया । वत्स ! मेरे स्नेह का स्मरण करके तुम तो अवश्य आना ।
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शिष्य ने उसे स्वीकार कर लिया । काल करके वह देवलोक • मैं उत्पन्न हुआ । देवलोक के कार्यों में व्यग्र रहने के कारण उसे आचार्य को दर्शन देने के लिए आने में विलम्ब हो गया ।
उसे शीघ्र न आते देख आचार्य के चित्त में विपरीत विचार