________________
४७०
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
उठने लगे। उन्होंने सोचा निश्चय से परलोक नहीं है। मेरे जिन शिष्यों का देहान्त हुआ है वे सभी ज्ञान, दर्शन और चारित्र की धाराधना करने वाले तथा शान्तस्वभावी थे । अन्तिम समय में आहार आदि का त्याग करके उन्होंने संथारा किया था । मैंने स्वयं उसे पूरा कराया था। उनके परिणाम यथा सम्भव शुद्ध थे । सभी मेरी आज्ञा को मानने वाले तथा स्नेहशील थे, किन्तु उनमें से एक भी मेरे पास नहीं आया। देवलोक होता तो वे वहाँ उत्पन्न होकर अवश्य मेरे पास भाते ।
मनोहर तथा सुखद भोगों को छोड़ कर मैंने आज तक कठोर तों का व्यर्थ पालन किया। मैं व्यर्थ ही ठंगा गया । अब सभी भोगों को भोग कर जन्म सफल करूँगा । जब परलोक ही नहीं है तो उसके लिए व्यर्थ कष्ट क्यों उठाया जाय। यह सोच कर वे सम्यक्त्व से गिर गए । साधु के ही वेश में उन्होंने मिथ्यात्व प्राप्त कर लिया। दीक्षा छोड़ने की इच्छा से वे गच्छ से बाहर निकल गए। इतने में स्वर्ग में गए हुए श्राचार्य के शिष्य ने अवधिज्ञान लगा कर देखा । अपने गुरु का यह हाल जान कर उसे बहुत दुःख हुआ । वह सोचने लगा-भागम रूपी नेत्र वाले होने पर भी मेरे गुरु मोह रूपी अन्धकार में पड़ कर मोच के मार्ग को छोड़ रहे हैं।
1
अहो मोहस्य महिमा, जगज्जैत्रो विजृम्भते । जात्यन्धा इव चेष्टन्ते, पश्यन्तोऽप्यखिला जनाः ॥ अर्थात्- मोह की महिमा अपार है । इसने अपनी विडम्बना से सारे संसार को जीत रक्खा है। इसके वश होकर देखते हुए भी लोग जन्मान्ध बन जाते हैं।
कुलवानपि धीरोऽपि, गभीरोऽपि सुधीरपि । मोहाज्जहाति, मर्यादां, कल्पान्तादिव वारिधिः ॥ अर्थात् - जिस प्रकार, समुद्र कल्पान्त के कारण मर्यादा को