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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग ४७१ छोड़ देता है उसी प्रकार कुलवान, धीर, गम्भीर तथा पण्डित भी मोह के कारण मर्यादा को छोड़ देता है। __ मोह से प्रेरित हो कर जब तक ये कोई दुष्कर्म नहीं करते तप तक इन्हें समझा कर सन्मार्ग पर लाना चाहिए । यह सोच कर वह देव नीचे भाया और अपने गुरु के मार्ग में एक ग्राम की विक्रिया की । उसके एक ओर विविध प्रकार के नाटक रचा दिए । प्राचार्य उस मनोहर नाटक को खेिं ऊपर किए कामास तक आनन्दपूर्वक देखते रहे । देव प्रभाव के कारण उन्हें नाटक देखते समय सरदी, गरमी, भूख,प्यात तथा थकावट कुछ नहीं मालूम पड़ी। इतने में देव ने उस नाटक का संहार कर लिया। प्राचार्य भागे चले । वे सोचने लगे-भाग्य से क्षण भर शुम नाटक देखने को मिला। देव ने उनके भावों की परिक्षा के लिए वन में छः कायों के नाम वाले छः चालकों की विकुर्वणा की। पालक सभी प्रकार के आभूषणों से सजे हुए थे । प्राचार्य ने बहुत जेवरों से लदे हुए पहले पृथ्वीकाय नाम के बालक को देखा और मन में सोचाइस पालक के आभूषणों को मैं छीन लेता हूँ, इनसे प्राप्त हुए धन से मेरी मोगेच्छा पूरी हो बायगी। धन के विना भोगेच्छा मृगाणा फा पानी पीने के समान है। यह सोच कर भाचार्य ने उस सुन्दर पालक को उत्कण्ठा से कहा-अरे । इन आभूषणों को उतार दे। पालक ने नहीं उतारे। इस पर क्रोधित होकर उन्होंने चालकको गर्दन से पकड़ लिया । भयभीत होकर बालक ने रोते हुए कहामेरा नाम पृथ्वीकायिक है । इस भयङ्कर भटवी में चोरों के उपद्रव से डर कर भापकी शरण में आया हूँ। . अशाश्वताबमाप्राणा, विश्वकीर्तिश्च शाश्वती। यशोऽर्थी प्राणनाशेऽपि, सद्रक्षेच्छरणागतम् ॥ अर्थात- ये प्राण प्रशाश्वत है। संसार में कीति शामत है।
SR No.010511
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2051
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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