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श्री सेठिया जैन मन्थमाला सागरोपम श्रायुष्य वाले देव जितने सागरोपम की आयु होती है उतने हजार वर्ष बाद पाहार ग्रहण करते हैं।
(३)वेदना-- देवों को प्रायः सातावेदनीय का ही उदय रहता है। कभी असातावेदनीय का उदय होने पर भी वह अन्तर्गत से अधिक नहीं ठहरता । सातावेदनीय भी अधिक से अधिक छह महीने रह कर फिर बदल जाता है।
(४) उपपात-अन्यलिङ्गी पाँचवे देवलोक तक उत्पन होते हैं।गृहलिङ्गी(श्रावक) वारह देवलोक तक और स्वलिङ्गी (दर्शन भ्रष्ट) नवग्रैवेयक तक उत्पन्न होते हैं । सम्यग्दृष्टि साधु सर्वार्थ सिद्ध तक उत्पन्न हो सकते हैं। चौदह पूर्वधारी संयमी पाँचवें देवलोक के ऊपर हो उत्पन्न होते हैं। (उनवाई, सत्र ३८)
(५) अनुभव- इसका अर्थ है लोकस्वभाव अर्थात् जगद्वर्ग। इसी कारण से विमान तथा सिद्धशिला आदि आकाश में विना आलम्बन ठहरे हुए है।
तीर्थङ्कर के जन्माभिषेक आदि प्रसंगों पर देवों का आसन कम्पित होना भी लोकानुभाव का ही कार्य है। आसन कॉपने पर अवधिज्ञान से उनकी महिमा जान कर बहुत से देव तीर्थङ्कर की वन्दना, स्तुति, उपासना आदि करने के लिए भगवान के पास आते हैं। कुछ देव अपने ही स्थान में बैठे हुए अभ्युत्थान, अञ्जलिकर्म, प्रणिपात नमस्कार आदि से तीर्थक्कर की भक्ति करते हैं। यह सब लोकानुमा का कार्य है ।।
(तत्त्वार्थाधिगम भाष्य, अध्याय ४०) (पन्नवणा)(जीवाभिगम) ८०६-कर्मप्रकृतियों के बारह बार
आठ कर्मों के कारण जीव चार गतियों में भ्रमण करता है। इनसे छूटते ही मोक्ष प्राप्त कर लेता है। पाठ कर्मों की अवान्तर प्रकृतियों का स्वरूप जानने के लिए नीचे लिखे बारह द्वार हैं