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श्री जैन सिद्धान्त बोज समा, बौथा भाग ३३५ (६) इन्द्रियविषय-इष्ट विषयों को दूर से ग्रहण करने की शक्ति भी उत्तरोतर देवों में अधिक होती है।
(७) अवधिज्ञान-अवधिचान भी ऊपर ऊपर अधिक होता है, यह पहले बताया जा चुका है।
नीचे लिखी चार वातों में देव उत्तरोत्तर हीन होते हैं
(१) गति-गमनक्रिया की शक्ति और प्रवृत्ति दोनों ऊपर ऊपर के देवलोकों में कम है। ऊपर ऊपर के देवों में महानुमावता, उदासीनता और गम्भीरता अधिक होने के कारण देशान्तर में जाकर क्रीड़ा करने की उनको इच्छा कम होती है।
(२) शरीर परिमाण-शरीर का परिमाण भी ऊपर के देवलोकों में कम होता है । यह अवगाहना द्वार में बताया जा चुका है।
(३) परिग्रह-विमान, पर्पदाओं का परिवार आदि परिग्रह भी उत्तरोत्तर कम होता जाता है।
(४) अभिमान-अहङ्कार । स्थान, परिवार, शक्ति, विषय, विभृति, स्थिति आदि में अभिमान करना । कषाय कम होने के कारण ऊपर ऊपर के देवलोकों में अभिमान कम होता है।
इन के सिवाय नीचे लिखी पाँच पाते भी जानने योग्य है
(१) उच्छ्वास--जैसे जैसे देवों की स्थिति बढ़ती जाती है उसी प्रकार उच्छ्वास का कालमान भी बढ़ता जाता है। जैसे दस हजार वर्ष की आयु वाले देवों का एक उच्छवास सात स्तोक परिमाण होता है । एक पल्यापम आयुष्य वाले देवों का एक उच्छवास एक मुहूर्त का होता है। सागरोपम आयुष्य वाले देवों में जितने सागरोपम की भायु होती है उतने पखवाड़ों का एक उपचास होता है।
(२) आहार-दस हजार वर्ष की आयु वाले देव एक दिन बीच में छोड़ कर आहार करते हैं। पन्योपम की श्रायुष्य वाले देव दिन पृथक्त्व भर्थात् दो दिन से लेकर नौ दिन तक के अन्तर पर।