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श्री जैन सिद्धान्त वोल समह, चौथा भाग के स्वर्ग में रहने वाले देवों को विषय सुख की इच्छा होती है तो देवियाँ देवों की उत्सुकता जान कर स्वयं उनके पास पहुंच जाती हैं। ऊपर ऊपर के देवलोकों में स्पर्श, रूप, शब्द तथा चिन्तन मात्र से तृप्ति होने पर भी उत्तरोत्तर सुख अधिक होता है। इसका कारण स्पष्ट है-जैसे जैसे कामवासना की प्रबलता होती है, चित्त में अधिकाधिक आवेग होता है। श्रावेग जितना अधिक होता है उसे मिटाने के लिए विषयभोग भी उतना ही चाहिए । दूसरे देवलोक की अपेक्षा तीसरे में, तीसरे की अपेक्षा चौथे में, चौथे से पाँचवें में, इसी प्रकार उत्तरोत्तर कामवासना मन्द होती जाती है। इससे इनके चित्तसंक्लेश की मात्रा भी कम होती है । इसी लिए इन्हें विषयप्ति के लिए अल्प साधनों की आवश्यकता होती है।
सौधर्म आदि देवों में नीचे लिखी सात वाते उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है
(१) स्थिति- सभी देवों की आयु पहले पत्ताई जा चुकी है। (२) प्रभाव-निग्रह और अनुग्रह करने का सामर्थ्य । अणिपा, लघिमा आदि सिद्धियाँ और बलपूर्वक दूसरे से काम लेने की शक्ति। ये सभी वातें भाव में भाती हैं । इस प्रकार का प्रभाव यद्यपि ऊपर वाले देवों में अधिक होता है तो भी उनमें अभिमान
और संक्लेश की मात्रा कम है। इस लिए वे अपने प्रभाव को काम में नहीं लाते।
(३-४) सुख और द्युति-इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य इष्ट विपयों का अनुभव करना सुख है । वन, आमरण आदि का तेज धुति है।
ऊपर ऊपर के देवलोकों में क्षेत्र स्वभावजन्य शुम पुद्गलपरिणाम की प्रकृष्टता के कारण उत्तरोत्तर सुख और पति अधिक होती है।
(५) लेश्या की विशुद्धि-सौधर्म देवलोक से लेकर ऊपर ऊपर के देवलोकों में लेश्यापरिणाम अधिकाधिक शुद्ध होते हैं।