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श्रीजैन सिद्धान्त बोल संग्रह. चौथा भाग
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(१)घ्र ववन्धिनी प्रकृतियाँ (२)अध्र ववन्धिनी प्रकृतियाँ। (३) ध्रु वोदया प्रकृतियाँ (४) अध्रु वोदया प्रकृतियाँ। (५) ध्रुवसत्ताक प्रकृतियों (६) अध्रुवसत्ताक प्रकृतियाँ । (७) सर्व-देशघातिनी प्रकृतियॉ (८) अघातिनी प्रकृतियों। (६) पुण्य प्रकृतियाँ (१०) पाप प्रकृतियाँ । (११) परावर्तमान प्रकृतियाँ (१२) अपरावर्तमान प्रकृतियाँ।
(१) ध्र ववन्धिनी प्रकृतियों-मिथ्यात्व आदि कारणों के होने पर जिन प्रकृतियों का चन्ध अवश्य होता है उन्हें ध्रुववन्धिनी प्रकृतियाँकहते हैं। पीसे हुए अञ्जन से भरे सन्दूक के समान सारा लोक कर्मवर्गणा के पुद्गलों से भरा है। मिथ्यात्व आदि वन्धकारणों के उपस्थित होने पर कर्मपुद्गलों का आत्मा के साथ द्ध पानी या भाग
और लोहे के गोले के समान जो सम्बन्ध होता है उसे वन्ध कहते हैं। आत्मा और कर्मों का सम्बन्ध तादात्म्य होता है अर्थात् दोनों एक दूसरे के स्वरूप में मिल जाते हैं । जहाँ आत्मा रहता है वहाँ कर्म रहते हैं और जहाँ कर्म वहाँ आत्मा। मोक्ष प्राति से पहले तक जीव और कर्मों का यह सम्बन्ध बना रहता है । ध्रुववन्धिनी प्रक- तियाँ सैतालीस हैं-ज्ञानावरणीय कर्म की पाँच । दर्शनावरणीय की नौ । मोहनीय की उन्नीस-अनन्तानुवन्धी आदि सोलह कपाय, भय, जुगुप्सा और मिथ्यात्व । नाम कर्म की नौ-वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श, तेजस, कार्मण, गुरुलघु, निर्माण और उपघात । अन्तराय कमकी पाँच । ऊपर लिखी ४७ प्रकृतियाँ अपने अपने वन्ध हेतुओं के होने पर अवश्य बंधती हैं। इस लिये ध्रु ववन्धिनी कहलाती हैं।
(२) अध्र ववन्धिनी प्रकृतियाँ-वन्ध हेतुओं के होने पर भी जो प्रकृतियाँ नियम से नहीं बँधतीं उन्हें अध्र ववन्धिनी प्रतियाँ कहा जाता है। कारण होने पर भी ये प्रकृतियों कमी बंधती हैं और कमी नहीं बँधतीं। इनके ७३ मेद हैं-३ शरीर-औदारिक, वैक्रियक,