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श्री जैन सिद्धान्त बोल सप्रह, चौथा भाग । (३) आश्विनी-आसोज मास की पूर्णिमा । (४) कार्तिकी-कार्तिक मास की पूर्णिमा । (५) मृगशिरा-मिगसर मास की पूर्णिमा । (६) पोपी-पौष मास की पूर्णिमा। (७) माघी-माघ मास की पूर्णिमा । (८) फाल्गुनी-फाल्गुन मास की पूर्णिमा । (8) चैत्री-चैत्र मास की पूर्णिमा । (१०) वैशाखी-वैशाख मास की पूर्णिमा। (११) ज्येष्ठामूली-ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा । (१२) आषाढी-आपाढ मास की पूर्णिमा ।
श्रावणी पूर्णिमा में चन्द्र के साथ तीन नक्षत्रों का योग होता है-अभिजिक, श्रवणा और धनिष्ठा । भाद्रपद की पूर्णिमा में शतभिपक्, पूर्वभाद्रपद और उत्तरमाद्रपद । आश्विनी में रेवती और अश्विनी । कार्तिकी में भरणी और कृचिका । मृगशिरा में रोहिणी और मृगशिर। पौपी में आर्द्रा, पुनर्वसु और पुष्य । माघी में अश्लेषा और पपा। फाल्गुनी में पूर्वाफाल्गुनी और उत्तराफाल्गुनी । चैत्री में हस्त और चित्रा वैशाखी में स्वाति और विशाखा । ज्येष्ठामूली में अनुराधा, ज्येष्ठा और मूना आषाढी में पूर्वाषाढा और उत्तरापाटा।
(सूर्य प्राप्ति प्राभूत १०, प्रतिप्राभूत ६) ८०१-अमावास्या बारह ।
जिस रात्रि में सूर्य और चन्द्र एक ही साथ रहते हैं अर्थात रात्रि में चन्द्र का विल्कुल उदय नहीं होता उसे अमावास्या कहते हैं। इसके भी वारह भेद पूर्णिमा की तरह जानने चाहिएं।
(सूर्य प्रति प्रामृत १०, प्रतिप्राभूत ६) ८०२-मास बारह
लगभग तीस दिन की कालमर्यादा को मास कहते हैं । एक