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श्री जैन सिद्धान्त बोल सप्रह, चौथा भाग
सोच कर उसने अपने दक्षिण हाथ से तलवार फेंक दी। साधु जी ने दूसरा शब्द विवेक कहा है। उसका अर्थ है द्रव्य, शयन और वस्त्र आदि को छोड़ना । कहा भी है
जन्तियमेते जीवो संजोगे चितवल्लहे कुण्ड | तत्तियमेत्ते सो सोयकीलए पियमणे पिहई ॥ अर्थात - चित्त को अच्छे लगने वाले विषयों से जीव जितना सम्बन्ध रखता है उतना ही उसे अधिक शोक करना पड़ता हूँ ।
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धन, धान्य आदि परिग्रह को भी मैं यावज्जीवन छोड़ता हूँ । यह सोच कर उसने मोहरहित होकर हिसा को छोड़ दिया ।
साधुजी ने तीसरा पद 'संवर' कहा था । संवर का अर्थ है इन्द्रिय और नोइन्द्रिय के व्यापार को रोकना । शरीर को त्याग कर मैं संवर को भी प्राप्त करता हॅू। यह सोचकर वह कायोत्सर्ग करके खड़ा हो गया । मुनि के उपदेश से उसे प्राणियों के लिए हितकर तथा संसार में सर्वश्रेष्ठ सम्यक्त्व रूपी रत्न की प्राप्ति हो गई ।
खून की गन्ध से वज्र सरीखी चोंच वाली चींटियाँ आकर उसके शरीर को खाने लगीं। पैरों से खाना शुरू करके वे सिर तक पहुँच गईं फिर भी चिल्लातीपुत्र ध्यान से विचलित नहीं हुआ । उसका शरीर चलनी के समान बिन्ध गया । अढाई दिन के बाद काल करके वह देवलोक में पहुँचा ।
जो तिहि परहिं धम्मं समभिगो संजमं समारूढो । उवसमविवेग संवर चिलाईपुत्तं एमंसामि ॥
थर्थात--जो उपदेश, विवेक और संवर रूप तीन पदों से धर्म को प्राप्त कर संयम पर श्रारूढ़ हुआ, ऐसे चिलातीपुत्र को नमस्कार हो । सिरिया पाएहिं सोणियगंधेणं जस्स कीडीओ खायंति उत्तमंगं, तं दुक्करकारगं वंदे ॥ अर्थात्--रक्त के गन्ध से चींटियों श्राकर पैरों से ऊपर चढ़ती
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