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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
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हूँ और पुत्री के मरने के कारण बहुत दुखी भी हॅू। इस लिए तुम तुझे मार कर अपनी भूख मिटा लो और घर चले जाओ ।
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पुत्रों ने कहा- हाय पिताजी ! आप यह क्या कह रहे हैं ? आप हमें लज्जित कर रहे हैं। ऐसा घृणित कार्य करके हम संसार में किसी को मुंह दिखाने लायक न रहेंगे ।
सब लड़कों ने भी क्रमशः अपने अपने शरीर द्वारा भूख मिटाने के लिए कहा किन्तु उसे स्वीकार कहीं किया गया । यह देख कर पिता ने कहा- अगर यही बात है तो इस मरे हुए कलेवर से अपने
प्राणों की रक्षा करो। प्राणों की रक्षा के लिए मोह छोड़ कर भूख के घाव को भर लो । उससे भूख मिटा कर वे लोग अपने घर चले गए । भागते हुए चिलातीपुत्र ने एक ध्यानस्थ मुनि को देखा । पास जाकर कहने लगा- महाराज ! मुझे संक्षेप से बताइए, धर्म क्या है ? नहीं तो तुम्हारा भी सिर काट डालूंगा ! मुनि ने उपयोग लगा कर देखा कि यह सुलभबोधि जीव है, इस लिए अवश्य प्रतिबोध प्राप्त करेगा | यह सोच कर उन्होंने उपशम, विवेक और संवर इन तीन पदों में धर्म का उपदेश दिया । चिलातीपुत्र एकान्त में जाकर बैठ गया और सोचने लगा- इन पदों का क्या अर्थ है १
उसने विचार किया - क्रोध का त्याग करना उपशम है। उदय में आए हुए क्रोध को निष्फल बनाना चाहिए और उदय में नहीं ser हुए को रोकना चाहिए। शास्त्रों में कहा है - दुग्गगमणे सउणो, सिवसग्गपहेसु किएहसप्पोच्व । अत्तपरोभयसंतावदायगो, दारुणो कोहो ॥
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अर्थात- क्रोध जीवों को दारुण अर्थात् कठोर दुःख देने वाला होता है । दुर्गति में जाने का शकुन है । मोच और स्वर्ग के मार्ग में कृष्ण सर्प है । अपनी आत्मा तथा दूसरे सभी को दुःख देने वाला है । "मैं इस क्रोध से यावज्जीवन निवृत्त होना चाहता हूँ ।" यह
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