________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग करता। पूर्वक हिंसा करने का यावज्जीवनदो करण तीन योग से त्याग पहले व्रत के 5 अतिचार(१) बन्धे- किसी जीव को निरपेच निर्दयता से ऐसे गाडे बन्धन से बांधना कि जो समय पर जल्दी नहीं खुल सके। (2) बहे--निर्दयता से किसीप्राणी पर कोड़े,चाबुक,लकड़ी मादि का ऐमा प्रहार करना जिससे उसके अंगोपाङ्ग में गहरी चोट भावे। ___ (3) छविच्छेए-निर्दय बुद्धि से किसी जीव की चमड़ी या अंगोपाल का छेदन करना। -दो करण तीन योग से हिसा के त्याग का खुलासा इस प्रकार समझना चाहिए। (1) मारू नहीं मन से अर्थात् मन में मारणादि मंत्र गिनना(जीव की घात विचारना) जिससे जीव की हिंसा हो जाय / (मारू नहीं वचन से अर्थात् शाप आदि देना जिससे उसजीष की हिंसा हो जाय। (3) मारू नहीं काया से अर्थात् स्वय अपनी काया सेकिसी जीव को मार देना (4) मराऊ नहीं मन से अर्थात अपने मन में ऐसा मंत्रादि गिनना जिससे दुसरे व्यक्ति के मन पर असर करके उसके द्वारा जीव की हिंसा कराई जाय। (5) मराऊ नहीं वचन से अर्थात् वचन से कहकर दूसरे से किसी जीव को मरवाना। ..(6) मराऊ नहीं काया से अर्थात् हाथ आदि का इशारा करके दूसरे से किसी जीव को मरवाना। किसी जीव को मारू नहीं, मराऊनहीं ये दो करण और मन, वचन, काया से ये वीन योग / इस प्रकार यावजीवन त्रस जीव की हिंसान करने का प्रावक के छः कोटि पचखाण होता है।