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________________ 456 श्री सेठिया जन प्रन्थमाना / . -इस प्रकार मैं अरिहंत, सिद्ध और गुरु महाराज की सादी से मिथ्यात्व का त्याग करता हूं और शुद्ध समकित को ग्रहण करता - अब जिन शासनपति महावीर प्रभु के शासनस्थित मुनि श्री श्री................. ................. ..... के पास मैं अपनी शक्ति अनुसार श्रावक के श्वत ग्रहण करता / श्रावक के बारह व्रत 1 पहला व्रत स्थूल प्राणातिपात का त्याग गृहस्थाश्रम में रहता हुआ श्रावक स्थावर जीवों की हिंमा का त्याग नहीं कर सकता है किन्तु उसमें उसको विवेक रखने की आवश्यकता है। यदि विवेक से कार्य करे तो स्थावर जीवों की हिंसा का बहुत बचाव कर सकता है और आश्रव में संवर निपजा पूर्ति कर सकता है। अतः विवेक रखने की पूर्ण आवश्यकता है। बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय इनत्रस जीवों को जान कर, देख कर संकल्पपूर्वक दुष्ट बुद्धि से निरपराधी जीवों की हिंसा करने का त्याग किया जाता है। इसमें भी विवेकशील श्रावक बहुत हिंसा टाल सकता है / प्रतिज्ञा .. मैं किसी भी निरपराधी त्रस जीव की द्वेष बुद्धि से संकल्प --- ---- __* जिसकी शक्कि पूरे बारह बन ग्रहण करने की न हो वह अपनी शक्ति अनुसार एक, दो, तीन, चार, पांच यावत् बारह जैसी इच्छा हो उतने ही व्रत ग्रहण कर सकता है और करण योग भी अपनी शक्ति अनुसार जैसा निमे वैसा रख सकता है।
SR No.010511
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2051
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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