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भी सेठिया जैन ग्रन्थमाला
२७६ (१) सावद्य--गर्हित (निन्दित) कार्य से युन, अथवा हिंसादि कार्य से युक्त मन की प्रवृत्ति।
(२) सक्रिय-कायिकी श्रादि क्रियाओं से युक्त मन की प्रवृत्ति। (३) सर्कश-कर्कश (कठोर) मावों से युक्त मान की प्रवृत्ति। (४) कटुक-अपनी आत्मा के लिये और दूसरे प्राणियों के लिए अनिष्टकारी मन की प्रवृत्ति । (५) निष्ठुर-मृदुता (कोमलता) रहित मन की प्रवृत्ति । (६) परुष-कठोर अर्थात् स्नेह रहित मन की प्रवृत्ति ।
(७) माधवकारी-जिससे अशुभ कर्मों का भागमन हो, ऐसी मन की प्रवृति।
(८) छेदकारी-अमुक पुरुष के हाथ पैर आदि अवयव काट डाले जायँ इत्यादि मन की दुष्ट प्रवृत्ति।
(8) भेदकारी-अमुक पुरुष के नाक कान आदि का भेदन कर दिया जाय ऐसी मन की प्रवृत्ति ।
(१०) परितापनाकारी-प्राणियों को संताप उपजाना, इत्यादि मन की प्रवृत्ति।
(११) उपद्रवकारी-अमुक पुरुष को ऐसी वेदना हो कि उसके प्राण छूट जाय या अमुक पुरुष के धन को चोर चुग ले जाय, इस प्रकार मन में चिन्तन करना। (१२) भूतोपपातकारी-जीवों की विनाशकारी मन की प्रवृश्चि।
(उपवाई सूत्र २०) ७६२- कम्मिया बुद्धि के बारह दृष्टान्त
किसी कार्य में उपयोग लगा कर उसके नतीजे को जान लेने वाली, सज्जन पुरुषों द्वारा प्रशंसित, कार्य करते हुए अभ्यास से उत्पन्न होने . वाली बुद्धि कम्मिया (कर्मजा) कहलाती है। बारह प्रकार के पुरुष ऐसे हैं जिन्हें काम करते करते एक विलक्षण बुद्धि उत्पन्न हो जाती है।