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श्री जैनसिद्धान्त बोल संग्रह) चौथा भाग (१२) यावत्य अथवा कम्पन--सामायिक में बैठे हुए निष्कारण ही दूसरे से वैयावच कराना 'वैयावत्य दोष है और स्वाध्याय करते हुए घूमना यानी हिलना या विना कारण शरीर को कंपाना 'कम्पन दोष है । श्रावक के चार शिक्षाप्रत, पूज्य श्री जवाहरलाल जी महाराज कृत) ७६०-मान के बारह नाम
अपने आप को दूसरों से उत्कृष्ट बवाना मान है । इसके समानार्थक वारह नाम है(१) मान-- मान के परिणाम को उत्पन्न करने वाले कपाय को मान कहते हैं। (२) मद-मद करना या हर्ष करना। (३) दर्प (मता) घमण्ड में चूर होना।-- (४) स्तम्म-- नम्र न होना, स्तम्भ की तरह कठोर बने रहना। (५)ग-अकार। (६)अत्युल्क्रोश -अपने को दूसरों से उत्कृष्ट पताना। (७)परपरिवाद-दमरे की निन्दा करना। (८) उत्कर्ष - अभिमान पूर्वक अपनी समृद्धि प्रकट करना या दूसरे की क्रिया से अपनी क्रिया को उत्दृष्ट बताना। (8)अपकर्ष-अपने से दूसरे को तुच्छ बताना । (१०)उन्नत-विनय का त्याग कर देना। (११) उन्नाम-वन्दन योग्य पुरुष को भी बन्दना न करना। (१२)दुर्नाम-वन्दना करने के योग्य पुरुष को भी अभिमान पूर्वक धुरी तरह से वन्दना करना । (मावती शतक १२ उ०५) ७६१-अप्रशस्त मन विनय के बारह भेद
असंयती पुरुषों के मन (चित्त) की प्रवृत्ति प्रशस्त मन विनय कहलाती है । इसके बारह भेद है