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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग १ प्रकार से तीन तरह की विकुर्वणाएं । तीन प्रकार की नारकी। इसी प्रकार एकेन्द्रियों को छोड़ कर वैमानिक तक सभी दण्डकों के तीन तीन भेद । तीन प्रकार की परिचारणा । तीन प्रकार का मैथुन । तीन मैथुन प्राप्त करने वाले तथा तीन सेवन करने वाले।
तीन योग । तीन प्रयोग । तीन करण दो प्रकार से। अल्पायु चाँधने के तीन कारण। दीर्घायु बाँधने के तीन कारण । अशुभ दीर्घायु चाँधने के तीन कारण । शुभ दीर्घायु वॉधने के तीन कारण । (सूत्र १२४-१२५)
तीन गुप्ति। तीन अगुप्ति । तीन दण्ड । तीन गर्दा,दो प्रकार से। तीन प्रत्याख्यान । तीन वृक्ष । तीन पुरुष पाँच प्रकार से। तीन उत्तम पुरुष । तीन मध्यमपुरुष । तीन जघन्यपुरुष । (सूत्र १२६-१२८)
तीन प्रकार के मत्स्य।अंडज मत्स्य के तीन भेद । पोतज मत्स्य के तीन भेद । पक्षियों के तीन भेद तथा अंडज और पोतज के फिर तीन तीन मेद।इसी प्रकार उरपरिसर्प और भुजपरिसर्प के भी तीन तीन भेद । स्त्रियों के तीन भेद । तिर्यश्च स्त्री और मनुम्य स्त्री के तीन तीन मेद । मनुष्य तथा नपुंसकों के दो भेद प्रमेद। तिर्यञ्च के तीन मेद । (सूत्र ११६-१३१)
नारकी आदि दंडकों में लेश्याएं । तीन कारणों से वारे अपने स्थान से विचलित होते हैं, तीन कारणों से देव विजली की विकुर्वणा करते हैं और तीन कारणों से गर्जना करते हैं । लोक में अन्धकार के तीन कारण,उद्योत के तीन कारण, इसी प्रकार देवान्धकार, देवोद्योत, देवसंनिपात, देवोत्कलिका, देवकहकहा के तीन कारण । तीन कारणों से देवेन्द्र मनुष्यलोक में आते हैं। इसी तरह सामानिक, त्रायस्त्रिंश, लोकपाल, अग्रमहिपियाँ श्रादि के भी तीन कारण है। तीन कारणों से देव, उनके सिंहासन और चैत्यवृक्ष आदि विचलित होते हैं और वे मनुष्यलोक में आते हैं। (सत्र १३२-३४)